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११ काल पदार्थ
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एक सेकेण्डमे असख्यातो 'समय' होते है । ६० सेकेण्डका एक मिनट, ६० मिनटका एक घण्टा, और इस प्रकार आगे-आगे गुणाकार करके हमारा काल सम्बन्धी व्यवहार चलता है ।
८. कालके स्वभाव-चतुष्टय
अन्य पदार्थोंकी भाँति कालका भी स्वभाव-चतुष्टय द्वारा विश्लेषण कर लेना चाहिए। द्रव्यकी अपेक्षा विचार करनेपर ये कालाणु रूप पदार्थ इस लोकमे असख्यात मात्र है अर्थात् उतने हैं जितने कि लोकके प्रदेश । क्षेत्रकी अपेक्षा विचार करनेपर ये केवल अणु प्रमाण होते हैं तथा लोकके एक-एक प्रदेशपर एक-एक ही रहते हैं। कालकी अपेक्षा विचार करनेपर ये कालाणु नित्य अवस्थित है, न तो अपना अणु रूप बदल सकते है न अपना स्थान छोडकर अन्यत्र जा सकते है। भाव की अपेक्षा ये कलाणु जीव तथा पुद्गलको स्थूल रूपसे और आकाशादि पदार्थोंको सूक्ष्म रूपसे यथा योग्य भावपरिवर्तन तथा स्थान-परिवर्तनमे सहायक होते है। ९. काल द्रष्यको जानने का प्रयोजन
प्रत्येक दृष्ट पदार्थ परिवर्तनशील तथा विनष्ट होनेवाला है। वह कालके आधीन है अत. सत् नही है। सत् वह है जो इन सब बाहरके रूपोके पीछे बैठा है। साधारण दृष्टिसे वह दिखाई नही देता । जो सत् है वह दिखाई नही देता और जो दिखाई देता है वह सत् नही है, इसी कारण नित्य भय तथा स्वार्थ वना रहता है, जीवन व्याकुल रहता है। अत. जीवनको उन्नत बनानेके लिए कालकी सामर्थ्यको पहिचानकर सत्की ही प्राप्ति करनेका प्रयत्न करें, जो कि कालकी समीके बाहर है और जिसके प्राप्त हो जानेपर अन्य कुछ प्रातव्य नहीं रहता। यही इसे जाननेका प्रयोजन है।