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जीवके धर्स तथा गुण चाहिए कि उन गुणोमे-से कितना भाग चेतनका है और कितना अन्त करणका, क्योकि चेतन व अन्त करण इन दोनोके संयोगका नाम ही जीव है ऐसा पहले बताया जाता रहा है। इस प्रयोजनकी सिद्धिके अर्थ पहले बताया हुआ चेतनका स्वरूप-भान करना होगा। चेतनका स्वरूप है ज्ञान-प्रकाश मात्र। बस इस सामान्य ज्ञानके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह सब अन्त.करणका समझें। भले हो आप इन दोनोको साक्षात् रूपसे पृथक-पृथक् करके न देख सकें परन्तु बुद्धि द्वारा उनका विश्लेषण किया जाना सम्भव है।
ज्ञान-प्रकाश मात्रका अर्थ है ज्ञान ही ज्ञान । अर्थात् जानना भो ज्ञानरूप, दर्शन भी ज्ञानरूप, सुख भी ज्ञानरूप, वीर्य तथा अनुभव भी ज्ञानरूप, रुचि भी ज्ञान रूप और भी जो कुछ हो वह सब ज्ञानरूप । अत. कहा जा सकता है कि ज्ञान द्वारा ज्ञानमे ज्ञानको जानना चेतनका ज्ञान है, ज्ञान द्वारा ज्ञानमे ही प्रकाशका साक्षात् करना चेतनका दर्शन है, ज्ञान द्वारा ज्ञानमे ही स्थित रहना चेतनका निराकुल आनन्द है, ज्ञानकी स्थिति निष्कम्प बने रहना उसमे चचलता न होना यही चेतनका वीर्य है, ज्ञानके उस आनन्दका अनुभव करते रहना चेतनका अनुभव है और यह 'ज्ञान ही मैं हूँ तथा यही मुझे इष्ट है इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं' ऐसी श्रद्धा व रुचि ही चेतनकी श्रद्वान व रुचि है। यदि ऐसा है अर्थात् सब कुछ ज्ञान ही है तो कथन मात्रको ही उसे ज्ञान-दर्शन सुख आदि नामोसे कहा गया प्रतीत होता है। उसे तो अखण्ड ज्ञानप्रकाश मात्र ही कहना चाहिए. या उसे केवल ज्ञान कहना चाहिए।
अन्त करणसे छूटकर जब जीव मुक्त हो जाता है तब उसमे यह ज्ञानप्रकाश उपर्युक्त प्रकार हो साक्षात् रूपसे खिल उठता है, अर्थात् उस समय पूर्वोक्त भेद प्रभेदोमें-से उसमे केवलज्ञानरूप