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६ जीव के धर्म तथा गुण
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क्षीण न हो। इसी प्रकार जीवकी भी कोई न कोई शक्ति है । ध्यान रहे कि यहाँ शरीरकी शक्तिको नही कहा जा रहा है बल्कि जीवकी शक्तिको कहा जा रहा है | शरीरकी शक्ति तो कोई बोझ उठाते समय तथा कुश्ती लडते समय देखी जाती है, परन्तु जीवकी शक्ति रोग, मरण, हानि आदि चिन्ताके कारण उपस्थित होनेपर देखी जाती है । ऐसे अनिष्ट सयोग हो जानेपर उन्हे कौन जीव कितना सहन कर सकता है, तथा कितनी देर तक सहन कर सकता है यही उसकी शक्ति है । चिन्ताके कारणोको सहन करनेका अर्थ है शान्तिमे स्थिति । जो जीव प्रतिकूलताओ मे जितना अधिक शान्त रह सकता है उतनी ही उसकी शक्ति या बल है । इसका कारण भी यह है कि, जिस प्रकार स्तम्भका स्वभाव भार वहन करनेका है, उसी प्रकार जीवका स्वभाव शान्त रहनेका है । जिस प्रकार स्तम्भका अपने रूपमे टिके रहना उसकी शक्ति है, इसी प्रकार जीवका अपने स्वभाव मे टिके रहना उसकी शक्ति है और वही उसका वीर्य है । इस प्रकार परीक्षा करनेपर बडेबड़े बलवान् पुरुष भी नपुसकवत् शक्तिहीन सिद्ध होते हैं, क्योकि तनिक-सी बात सुनकर या स्त्री आदिका रूप देखकर वे तुरन्त धैर्य खो बैठते हैं, क्रोध तथा कामके अधीन हो जाते है । वास्तविक वो तो मुनिजनोमे हो है कि कैसे भी घोर सकट या परीक्षाके अवसर आनेपर अपनी साधनासे नही डिगते ।
७. अनुभव
अनुभव दुख-सुख, चिन्ता अथवा शान्तिको अन्दरमे महसूस करनेका नाम है। किसी पदार्थका जानना और बात है और उसका अनुभव करना और बात है । जाना तो दूरवर्ती तथा निकटवर्ती दोनो पदार्थोंको जा सकता है, परन्तु अनुभव तो उस समय तक नही हो सकता है जब तक कि जीव उस पदार्थ के साथ तन्मय न हो जाये |
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