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________________ पदार्प विज्ञान ३. संसारी तथा मुक्तकी अपेक्षा जीबोके भेद यद्यपि चेतनाका कोई भेद या प्रकार नहीं होता, तदपि जीव अनेक प्रकारका होता है, क्योकि वह शरीर धारण करता है तथा उससे युक्त होता है। जो शरीर धारण करता है वह अनेक प्रकार का होता है । अन्तःकरण भी अनेक प्रकारका होता है। उन शरीगेके कारण तथा अन्त करणके कारण वह अनेक आकृतियोका तथा अनेक स्वभावोका दिखलाई देता है। लोकमे सर्व हो जोव क्योकि इन बन्धनोमे बँधे हुए हैं इसलिए चित्र-विचित्र हैं। जिस प्रकार जल नामक पदार्थ यद्यपि एक प्रकारका ही है, चाहे तालाबका हो या कुएँका, परन्तु अपनी-अपनी उत्पत्ति तथा निवास स्थानकी अपेक्षा उसे अनेक प्रकारका कहा जाता है-यथा वर्षाका जल, जोहडका जल, तालाबका जल, कुएंका जल, नदीका जल, सागरका जल इत्यादि । उसी प्रकार जीव नामका पदार्थ यद्यपि एक प्रकारका ही है, चाहे मनुष्यका जीव हो या गायका । परन्तु भिन्न-भिन्न शरीरोमे उत्पत्ति तथा निवास स्थानको अपेक्षा उसे अनेक प्रकारका कहा जाता है-यथा मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतग आदि । जलमे रहनेवाले, पृथ्वीपर चलनेवाले, आकाशमे उडनेवाले, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय इत्यादि। अब इन शरीरधारो ससारी जीवोके इन्ही भेदप्रभेदोका कुछ सक्षिप्त-सा परिचय देता हूँ। जीव पदार्थ जिसे पहले असख्यात प्रदेशी तथा शरीरके आकारका कहा गया है, बराबर नये-नये शरीर धारण करता रहता है, यह बात सर्व प्रत्यक्ष है, तथा इसकी सिद्धि भी पहले कर दी गयी है। नये-नये शरीरोमे इस प्रकार जन्म-मरण करनेका नाम संसार है। उस ससार अर्थात् जन्म-मरण करनेमे ही जो उलझ रहे है उन्हे संसारी कहते हैं, जैसे हम, तुम, सब । परन्तु कुछ ऐसे जीव भी हैं तथा आगे भी होगे जो साधना-विशेषके द्वारा इस जन्म-मरणके
SR No.009557
Book TitlePadartha Vigyana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1982
Total Pages277
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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