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कुदकुद-भारता
भगवान्के शासनमें कहा गया है।।१३३ ।। इस तरह श्री कुंदकुंदाचार्य विरचित नियमसार ग्रंथमें परमसमाध्यधिकार नामक
नौवाँ अधिकार समाप्त हुआ।।९।।
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परमभक्त्यधिकार
सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो।
तस्स दु णिव्बुदिभत्ती, होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ।।१३४।। जो श्रावक अथवा मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें भक्ति करता है उसे निवृत्ति भक्ति -- मुक्तिकी प्राप्ति होती है ऐसा जिनेंद्र भगवान्ने कहा है।।१३४ ।।
मोक्खंगयपुरिसाणं, गुणभेदं जाणिऊण तेसिंपि।
जो कणदि परमभत्तिं, ववहारणयेण परिकहियं ।।१३५।। मोक्षको प्राप्त करनेवाले पुरुषोंके गुणभेदको जानकर उनकी भी परम भक्ति करता है उसे भी निवृत्ति भक्ति -- मुक्तिकी प्राप्ति होती है ऐसा व्यवहारनयसे कहा गया है।।१३५ ।।
मोक्खपहे अप्पाणं, ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती।
तेण दु जीवो पावइ, असहायगुणं णियप्पाणं ।।१३६।। मोक्षमार्गमें अपने आपके स्थापित कर जो निवृत्ति भक्ति -- मुक्ति की आराधना करता है उससे जीव असहाय -- स्वापेक्ष गुणोंसे युक्त निज आत्माको प्राप्त करता है।।१३६ ।।
रायादीपरिहारे, अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू।
सो जोगभत्तिजुत्तो, इदरस्स य कह हवे जोगो।।१३७।। जो साधु अपने आत्माको रागादिकके परित्यागमें लगाता है वह योगभक्तिसे युक्त है, अन्य साधुके योग कैसे हो सकता है? ।।१३७ ।। ।
सव्वविअप्पाभावे, अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू।
सो जोगभत्तिजुत्तो, इदरस्स य किह हवे जोगो।।१३७ ।। जो साधु अपने आत्माको समस्त विकल्पोंके अभावोंमें लगाता है वह योग भक्तिसे युक्त है, अन्य साधुके योग किस प्रकार हो सकता है? ।।१३८ ।।