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नियमसार
तप प्रायश्चित्त क्यों है?
णंताणंतभवेण, समज्जिअसुहअसुहकम्मसंदोहो ।
तवचरणेण विणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा । । ११८ । ।
क्योंकि अनंतानंत भवोंके द्वारा उपार्जित शुभ-अशुभ कर्मोंका समूह तपश्चरणके द्वारा विनष्ट हो जाता है इसलिए तप प्रायश्चित्त है । । ११८ ।।
ध्यान ही सर्वस्व क्यों है?
अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहारं ।
सक्कदि काउं जीवो, तम्हा झाणं हवे सव्वं । । ११९ । ।
आत्मस्वरूपका अवलंबन करनेवाले भावसे जीव समस्त विभाव भावोंका निराकरण करनेमें समर्थ होता है इसलिए ध्यान ही सबकुछ है।।११९ ।।
सुहअसुहवयणरयणं, रायादीभाववारणं किच्चा ।
अप्पा जो झायदि, तस्स दु नियमं हवे णियमा । । १२० ।।
शुभ-अशुभ वचनोंकी रचना तथा रागादिक भावोंका निवारण कर जो आत्माका ध्यान करता है उसके नियमसे नियम अर्थात् रत्नत्रय होता है । । १२० ।।
कायोत्सर्ग किसके होता है?
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कायाईपरदव्वे, थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं ।
तस्स हवे तणुसग्गं, जो झायइ णिव्विअप्पेण । ।१२१ । ।
जो शरीर आदि परद्रव्यमें स्थिरभावको छोड़कर निर्विकल्प रूपसे आत्माका ध्यान करता है उसके कायोत्सर्ग होता है । । १२१ । ।
इस प्रकार श्री कुंदकुंदाचार्य विरचित नियमसार ग्रंथमें शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्ताधिकार नामक
आठवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।।८ ।।
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