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नियमसार
चत्ता गुत्तिभावं, तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो
सो पडिकमणं उच्चइ, , पडिकमणमओ हवे जम्हा । ८८ ।।
जो साधु अगुप्तिभावको छोड़कर तीन गुप्तियोंसे गुप्त - सुरक्षित रहता है वह प्रतिक्रमण कहा जाता है, क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय होता है । । ८८ ।।
साहू 1
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मत्तूण अट्टरुद्द, झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा ।
सो पडिकमणं उच्चइ, जिणवरणिद्दिट्ठत्तेसु ।।८९।।
जो आर्त और रौद्र ध्यानको छोड़कर धर्म्य अथवा शुक्ल ध्यान करता है वह जिनेंद्र भगवान् के द्वारा कथित शास्त्रों में प्रतिक्रमण कहा जाता है । । ८९ ।।
मिच्छत्तपहुदिभावा, पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं ।
सम्मत्तपहुदिभावा, अभाविया होंति जीवेण । । ९० ।।
जीवने पहले चिरकालतक मिथ्यात्व आदि भाव भाये हैं। सम्यक्त्व आदि भाव जीवने नहीं भाये हैं । । ९० ।।
मिच्छादंसणणाणचरित्तं चइऊण णिरवसेसेण ।
सम्मत्तणाणचरणं, जो भावइ सो पडिक्कमणं । । ९१ । ।
जो संपूर्ण रूपसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको छोड़कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी भावना करता है वह प्रतिक्रमण है । । ९१ । ।
आत्मध्यान ही प्रतिक्रमण है
उत्तमअट्ठे आदा, तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्मं ।
तम्हा दु झाणमेव हि, उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं । । ९२ । ।
उत्तमार्थ आत्मा है, उसमें स्थिर मुनिवर कर्मका घात करते हैं इसलिए उत्तमार्थ -- उत्कृष्ट पदार्थ आत्माका ध्यान करना ही प्रतिक्रमण है । । ९२ ।।
झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं ।
तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं । । ९३ । ।
ध्यानमें विलीन साधु सब दोषोंका परित्याग करता है इसलिए निश्चयसे ध्यान ही सब अतिचारों समस्त दोषोंका प्रतिक्रमण है ।। ९३ ।।
व्यवहार प्रतिक्रमणका वर्णन
पडिकमणणामधेये, सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं ।
तह णच्चा जो भावइ, तस्स सदा होइ पडिक्कमणं ।। ९४ ।।