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________________ प्रस्तावना पचपन जिसके आगमपूर्वक दृष्टि नहीं है अर्थात् आगमका स्वाध्याय कर जिसने अपनी तत्त्वश्रद्धाको सुदृढ़ नहीं किया है उसके संयम नहीं होता, ऐसा जिनशास्त्र कहते हैं। फिर भी जो असंयमी है -- संयमसे रहित है वह श्रमण -- साधु कैसे हो सकता है? आगमका अध्ययनमात्र ही कार्यकारी नहीं है, तत्त्वार्थका श्रद्धान भी कार्यकारी है और मात्र श्रद्धान ही कार्यकारी नहीं है उसके साथ संयमका आचरण भी कार्यकारी है। इस विषयको देखिए, कुंदकुंद स्वामी कैसा स्पष्ट करते हैं। हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि ण अत्थि अत्थेसु । सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ।। ३७ ।। यदि पदार्थविषयक श्रद्धान नहीं है तो सिर्फ आगमके ज्ञानसे यह जीव सिद्ध नहीं हो सकता और पदार्थका श्रद्धान करता हुआ भी यदि असंयत है -- संयमसे रहित है तो वह निर्वाणको प्राप्त नहीं हो सकता। ज्ञानकी महिमा बतलाते हुए कहा है अण्णाणी कम्मं खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ उस्सासमेत्तेण ।। ३८ ।। अज्ञानी जीव सैकड़ों, हजारों तथा करोड़ों भवमें जिस कर्मको खिपाता है, तीन गुप्तियोंका धारक ज्ञानी जीव उसे उच्छ्वासमात्रमें खिपा देता है। यहाँ 'तीन गुप्तियोंका धारक' इस विशेषणसे सम्यक् चारित्रकी सत्ता अनिवार्य बतलायी गयी है । विना सम्यक् चारित्रके अंग और पूर्वका पाठी जीव भी सर्व कर्मक्षय करनेमें समर्थ नहीं है। आगमज्ञानका प्रयोजन स्वपरका ज्ञान कर परपदार्थमें मूर्च्छाको छोड़ना है। यदि आगमका ज्ञाता होकर भी कोई परपदार्थोंमें मूर्च्छाको नहीं छोड़ता है तो वह मोक्षको प्राप्त नहीं हो सकता। कुंदकुंद स्वामीके वचन देखिए -- परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि ।। ३९ ।। जिसके शरीरादि परपदार्थोंमें परमाणुप्रमाण भी मूर्च्छा -- आत्मीय बुद्धि है वह समस्त आगमका धारक होनेपर भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता । साधुको श्रमण कहते हैं अतः श्रमणकी परिभाषा करते हुए कुंदकुंद स्वामी कहते हैं समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो । लोकंच पुण जीविदमरणे समो समणो । । ४१ । । जो शत्रु और बंधुवर्ग में समानबुद्धि है, जो सुख-दुःख, प्रशंसा तथा निंदामें समान है, पत्थरके ढेले और सुवर्ण में समभाव है तथा जीवन और मरणमें समान है वह श्रमण कहलाता है। कैसा श्रमण कर्मक्षय कर सकता है? इसका समाधान देखिए. -- अत्थे जो मुज्झणि हि रज्जदि णेव दोषमुवयादि । समणो जदि सोणियदं खवेदि कम्माणि विविधाणि ।। ४४ ।। जो श्रमण परपदार्थोंमें मोहको प्राप्त नहीं होता - उनमें आत्मबुद्धि नहीं करता और न उनमें राग द्वेष करता है वह निश्चित ही नाना प्रकारके कर्मोंका क्षय करता है। भोपयोगी और शुद्धोपयोगीके भेदसे मुनियोंके दो भेद हैं। इनमें शुद्धोपयोगी मुनि आस्रवसे रहित होते हैं और शेष मुनि आस्रवसे सहित । शुभोपयोगी मुनि अरहंत आदिक परमेष्ठियोंकी भक्ति करते हैं तथा प्रवचन - परमागमसे
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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