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________________ चौवन कुंदकुंद-भारती 'मुनिपद धारनेके लिए इच्छुक भव्य अपने बंधुवर्गसे पूछता है -- हे इस जनके शरीरसंबंधी बंधुजनोंके शरीरमे रहनेवाले आत्माओ! इस जनका आत्मा आप लोगोंका कुछ भी नहीं है यह आप निश्चयसे जानो, इसीलिए आपसे पूछा जा रहा है। आज इस जनकी ज्ञानज्योति प्रकट हुई है अतएव यह आत्मा अनादि बंधुस्वरूप जो स्वकीय आत्मा है उसीके समीप जाता है।' इस तरह समस्त लोगोंसे आज्ञा प्राप्त कर गृहबंधनसे मुक्त हो, गुणी तथा कुल रूप वय आदिसे विशिष्ट योग्य गणी -- आचार्यके पास जाकर उनसे प्रार्थना करता है -- हे भगवन्! मुझे स्वीकृत करो -- चरणोंमें आश्रय प्रदान करो। मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं अन्य लोगोंका नहीं हूँ और अन्यलोग मेरे नहीं हैं -- मेरा किसीके साथ ममत्वभाव नहीं है, इसलिए मैं यथाजात -- दिगंबर मुद्राका धारक बनना चाहता हूँ। शिष्यकी योग्यता देखकर आचार्य उसे पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इंद्रियदमन, छह आवश्यक, केशलोच, आचेलक्य, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, खड़े-खड़े भोजन करना और दिनमें एक ही बार भोजन करना .... इन अट्ठाईस मूलगुणोंका उपदेश देकर उसे यथाजात -- निग्रंथवेषको प्रदान करते हैं जो मूर्छा तथा आरंभ आदिसे रहित है और अपुनर्भव -- मोक्षका कारण है। मुनिमुद्राको धारण कर भव्य जीव अपने ज्ञानदर्शन स्वभावमें लीन रहता हुआ बाह्यमें अट्ठाईस मूलगुणोंका निरतिचार पालन करता है। वह सदा प्रमाद छोड़कर गमनागमन आदि क्रियाओंको करता है। क्योंकि जिनागमका कथन है कि जीव मरे अथवा न मरे जो अयत्नाचारपूर्वक चलता है उसके हिंसा निश्चित रूपसे होती है और जो यत्नाचारपर्व चलता है उसके जीवघात होनेपर भी हिंसाजनित बंध नहीं होता है। साधुको यह त्याग परनिरपेक्ष -- परपदार्थोंकी अपेक्षासे रहित होकर ही करना चाहिए, क्योंकि जो साधु परपदार्थोंकी अपेक्षा रखता है उसके अभिप्रायकी निर्मलता नहीं हो सकती और अभिप्रायकी निर्मलताके बिना कोका क्षय नहीं हो सकता। गृहीत प्रवृत्तिमें दोष लगनेपर आचार्यके समीप उसका प्रतिक्रमण करता है और आगामी कालके लिए उस दोषका प्रत्याख्यान करता है। निग्रंथ साधु आगमका अध्ययन कर अपनी श्रद्धाको सुदृढ़ और चारित्रको निर्दोष बनाता है। आगमके स्वाध्यायकी उपयोगिता बतानेके लिए कुंदकुंद स्वामी कहते हैं -- आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि। अविजाणतो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।।३३।। आगमसे रहित साधु निज और परको नहीं जानता तथा जो निज और परको नहीं जानता अर्थात् भेदज्ञानसे रहित है वह कर्मोंका क्षय कैसे कर सकता है? आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि। देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ।।३४।। मुनि आगमचक्षु है, संसारके समस्त प्राणी इंद्रियचक्षु हैं, देव अवधिचक्षु हैं और सिद्ध सर्वतश्चक्षु हैं, अर्थात् मुनि आगमसे सब कुछ जानते हैं, संसारके साधारण प्राणी इंद्रियोंसे जानते हैं, देव अवधिज्ञानसे जानते हैं और सिद्ध भगवान् केवलज्ञानके द्वारा समस्त पदार्थोंको जानते हैं। आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स। णत्थित्ति भणइ सुत्तं असंजदो हवदि किध समणो।।३६।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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