SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८४ कुदकुद-भारता भगवान् पार्श्वनाथके समवसरणमें गुरुदत्त वरदत्त आदि पाँच मुनिराज रेशंदीगिरिके शिखरपर निर्वाणको प्राप्त हुए। उन्हें नमस्कार हो।।१९।। जे जिणु जित्थु तत्था, जे दु गया णिव्बुदिं परमं। ते वंदामि य णिच्चं, तियरणसुद्धो णमंसामि ।।२०।। जो जिन जहाँ जहाँसे परमनिर्वाणको प्राप्त हुए हैं मैं उनकी वंदना करता हूँ तथा त्रिकरण -- मन वचन कायसे शुद्ध होकर उन्हें नमस्कार करता हूँ।।२०।। सेसाणं तु रिसीणं, णिव्वाणं जम्मि जम्मि ठाणम्मि। ते हं वंदे सव्वे, दुक्खक्खयकारणट्ठाए।।२१।। शेष मुनियोंका निर्वाण जिस-जिस स्थानपर हुआ है दुःखोंका क्षय करनेके लिए मैं उन सबको नमस्कार करता हूँ।।२१।। अंचलिका इच्छामि भंते! परिणिव्वाणभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं। इमम्मि अवसप्पिणीए पच्छिमे भाए आहुट्ठमासहीणे वासचउक्कम्मि सेसकम्मि, पावाए णयरीए कत्तियमासस्स किण्हचउद्दसिए रत्तीए सादीए नक्खत्ते पच्चूसे भयवदो महदिमहावीरो वड्डमाणो सिद्धिं गदो, तिसु वि लोएसु भवणवासियवाणविंतरजोइसियकप्पवासियत्ति चउन्विहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण पुष्फेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिब्वेण वासेण, दिव्वेण पहाणेण णिच्चकालं अच्चंति, पूजंति, वंदंति, णमंसंति, परिणिव्वाणमहाकल्लाणपुज्जं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। हे भगवन्! मैंने निर्वाण भक्ति संबंधी कायोत्सर्ग किया है उसकी आलोचना करना चाहता हूँ। इस अवसर्पिणी संबंधी चतुर्थकालके पिछले भागमें साढ़े तीन माह कम चार वर्ष शेष रहनेपर पावा नगरीमें कार्तिक मास श्रीकृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिमें स्वाति नक्षत्रके रहते हुए प्रभात कालमें भगवान, महावीर अथवा वर्धमान स्वामी निर्वाणको प्राप्त हुए। उसके उपलक्ष्यमें तीनों लोकोंमें जो भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासीके भेदसे चार प्रकारके देव रहते हैं, वे सपरिवार दिव्य गंध, दिव्य पुष्प, दिव्य धूप, दिव्य चूर्ण, दिव्य सुगंधित पदार्थ और दिव्य स्नानके द्वारा निरंतर उनकी अर्चा करते हैं, पूजा करते हैं, वंदना करते हैं, नमस्कार करते हैं और निर्वाण नामक महाकल्याणकी पूजा करते हैं। मैं भी यहाँ रहता हुआ वहाँ स्थित उन निर्वाणक्षेत्रोंकी नित्यकाल अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। इसके फलस्वरूप मेरे दुःखोंका क्षय हो, कर्मोंका क्षय हो, रत्नत्रयकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, समाधिमरण
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy