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________________ अष्टपाहुड ३२७ जदि पढदि बहुसुदाणि य, जदि काहिदि बहुविहे य चारित्ते। तं बालसुदं चरणं, हवेइ अप्पस्स विवरीदं।।१००।। यदि ऐसा मुनि अनेक शास्त्रोंको पढ़ता है तथा नाना प्रकारके चारित्रोंका पालन करता है तो उसकी वह सन प्रवृत्ति आत्मस्वरूपसे विपरीत होनेके कारण बालश्रुत और बाल चारित्र कहलाती है।।१०० ।। वेरग्गपरो साहू, परदव्वपरम्मुहो य सो होदि। संसारसुहविरत्तो, सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो।।१०१।। जो साधु वैराग्यमें तत्पर होता है वह परद्रव्यसे पराङ्मुख रहता है, इसी प्रकार जो साधु संसारसुखसे विरक्त रहता है वह स्वकीय शुद्ध सुखमें अनुरक्त होता है।।१०१।। गुणगणविहूसियंगो, हेयोपादेयणिच्छिदो साहू। झाणज्झयणे सुरदो, सो पावइ उत्तमं ठाणं।।१०२।। गुणोंके समूहसे जिसका शरीर शोभित है, जो हेय और उपादेय पदार्थोंका निश्चय कर चुका है तथा ध्यान और अध्ययनमें जो अच्छी तरह लीन रहता है वही साधु उत्तम स्थानको प्राप्त होता है।।१०१ ।। णविएहिं जं णविज्जइ, झाइज्जइ झाइएहि अणवरयं। थुव्वंतेहि थुणिज्जइ, देहत्थं किं पि तं मुणह ।।१०३।। दूसरोंके द्वारा नमस्कृत इंद्रादि देव जिसे नमस्कार करते हैं, दूसरोंके द्वारा ध्यान किये गये तीर्थंकर देव जिसका निरंतर ध्यान करते हैं और दूसरोंके द्वारा स्तूयमान -- स्तुत किये गये तीर्थंकर भी जिसकी स्तुति करते हैं, शरीरके मध्यमें स्थित उस अनिर्वचनीय आत्मतत्त्वको तुम जानो।।१०३ ।। अरुहा सिद्धायरिया, उज्झाया साहु परमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठहि आदे, तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१०४।। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं। ये पाँचों परमेष्ठी भी जिस कारण आत्मामें स्थित हैं उस कारण आत्मा ही मेरे लिए शरण हो।।१०४ ।। सम्मत्तं सण्णाणं, सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव। चउरो चिट्ठहि आदे, तम्हा आदा हु मे सरणं ।।१०५।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ये चारों आत्मामें स्थित हैं, इसलिए आत्मा ही मेरे लिए शरण है।।१०५।।। एवं जिणपण्णत्तं, मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए। जो पढइ सुणइ भावइ, सो पावइ सासयं सोक्खं ।।१०६।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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