________________
३२६
कुंदकुंद-भारती परकी अपेक्षासे सहित लिंगको तथा रागी और असंयत देवको वंदना करता हूँ ऐसा मिथ्यादृष्टि मानता है, शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव नहीं।।९३।।
सम्माइट्ठी सावय, धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि।
विवरीयं कुव्वंतो, मिच्छादिट्ठी मुणेयव्यो।।१४।। सम्यग्दृष्टि श्रावक अथवा मुनि जिनदेवके द्वारा उपदेशित धर्मको करता है। जो विपरीत धर्मको करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए।।९४ ।।।
मिच्छादिट्ठी जो सो, संसारे संसरेइ सुहरहिओ।
जम्मजरमरणपउरे, दुक्खसहस्साउले जीवो।।९५ ।। जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह जन्म जरा और मरणसे युक्त तथा हजारों दुःखोंसे परिपूर्ण संसारमें दुःखी होता हुआ भ्रमण करता है।।९५।।
सम्मगुण मिच्छदोसो, मणेण परिभाविऊण तं कुणसु।
जं ते मणस्स रुच्चइ, किं बहुणा पलविएणं तु।।९६।। सम्यक्त्व गुण है और मिथ्यात्व दोष है ऐसा मनसे विचार करके तेरे मनके लिए जो रुचे वह कर, अधिक कहनेसे क्या लाभ है? ।।९६।।
बाहिरसंगविमुक्को, ण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो।
किं तस्स ठाणमउणं, ण वि जाणदि अप्पसमभावं ।।९७।। जो साधु बाह्य परिग्रहसे तो छूट गया है परंतु मिथ्यात्वभावसे नहीं छूटा है उसका कायोत्सर्गके लिए खड़ा होना अथवा मौनसे रहना क्या है? अर्थात् कुछ भी नहीं है, क्योंकि वह आत्माके समभावको तो जानता ही नहीं है।।९७।।
मूलगुणं छित्तूण य, बाहिरकम्मं करेइ जो साहू।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं, जिणलिंगविराधगो णिच्चं।।९८ ।। जो साधु मूलगुणोंको छेद कर बाह्य कर्म करता है वह सिद्धिके सुखको नहीं पाता। वह तो निरंतर जिनलिंगकी विराधना करनेवाला माना गया है।।९८ ।।
किं काहिदि बहिकम्मं, किं काहिदि बहुविहं च खवणं च। __किं काहिदि आदावं, आदसहावस्स विवरीदो।।९९।।
जो साधु आत्मस्वभावसे विपरीत है, मात्र बाह्य कर्म उसका क्या कर देगा? और आतापनयोग क्या कर देगा? अर्थात् कुछ नहीं।।९९।।