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कुदकुद - भारत
निग्गंथमोहमुक्का, बावीसपरीसहा जियकसाया ।
पावारंभविमुक्का, ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ।। ८० ।।
जो परिग्रहसे रहित हैं, पुत्र- मित्र आदिके मोहसे मुक्त हैं, बाईस परीषहोंको सहन करनेवाले हैं, कषायोंको जीतनेवाले हैं तथा पाप और आरंभसे दूर हैं वे मोक्षमार्गमें अंगीकृत हैं ।। ८० ।। उद्धद्धमज्झलोए, केई मज्झं ण अइयमेगागी ।
इयभावणाए जोई, पावंति हु सासयं मोक्खं । । ८१ ।।
ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोकमें कोई जीव मेरे नहीं हैं, मैं अकेला ही हूँ इस प्रकारकी भावनासे योगी शाश्वत -- अविनाशी सुखको प्राप्त होते हैं । । ८१ ।।
देवगुरूणं भत्ता, णिव्वेयपरंपरा विचितंता ।
झाणरया सुचरित्ता, ते गहिया मोक्खमग्गम्मि । । ८२ ।।
जो देव और गुरुके भक्त हैं, वैराग्यकी परंपराका विचार करते रहते हैं, ध्यानमें तत्पर रहते हैं। तथा शोभन -- निर्दोष आचारका पालन करते हैं वे मोक्षमार्गमें अंगीकृत हैं। । ८२ ।। णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो ।
सो होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं ।। ८३ ।।
निश्चय नयका ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा आत्माके लिए, आत्मामें तन्मयीभावको प्राप्त है वही सुचारित्र -- उत्तम चारित्र है। इस चारित्रको धारण करनेवाला योगी निर्वाणको प्राप्त होता है ।।८३ ।। पुरिसायारो अप्पा, जोई वरणाणदंसणसमग्गो ।
जो झयदि सो जोई, पावहरो भवदि णिद्वंदो । । ८४ ।।
पुरुषाकार अर्थात् मनुष्यशरीरमें स्थित जो आत्मा योगी बनकर उत्कृष्ट ज्ञान और दर्शनसे पूर्ण होता हुआ आत्माका ध्यान करता है वह पापोंको हरनेवाला तथा निर्द्वद्व होता है । । ८४ ।।
एवं जिणेहिं कहियं, सवणाणं सावयाण पुण पुणसु ।
संसारविणासयर, सिद्धियरं कारणं परमं । । ८५ ।।
इस प्रकार जिनेंद्र भगवान् के द्वारा बार-बार कहे हुए वचन मुनियों तथा श्रावकोंके संसारको नष्ट करनेवाले तथा सिद्धिको प्राप्त करानेवाले उत्कृष्ट कारणस्वरूप हैं ।। ८५ ।।
गहिऊण य सम्मत्तं, सुनिम्मलं सुरगिरीव निक्कंपं ।
तं झाणे झाइज्जइ, सावय दुक्खक्खयट्ठाए । । ८६ ।।
हे श्रावक ! ( हे सम्यग्दृष्टि उपासक अथवा हे मुने!) अत्यंत निर्मल और मेरुपर्वतके समान