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________________ ३१४ . कुंदकुद-भारती जो कोडिए ण जिप्पइ, सुहडो संगाम एहिं सव्वेहिं। सो किं जिंपइ इक्कि, णरेण संगामए सुहडो।।२२।। जो सुभट संग्राममें करोडोंकी संख्यामें विद्यमान सब योद्धाओंके द्वारा मिलकर भी नहीं जीता जाता वह क्या एक योद्धाके द्वारा जीता जा सकता है? अर्थात् नहीं जीता जा सकता।।२२।। सग्गं तवेण सव्वो, वि पावए तहि वि झाणजोएण। जो पावइ सो पावइ, परलोए सासयं सोक्खं ।।२३।। तपसे स्वर्ग सभी प्राप्त करते हैं, पर जो ध्यानसे स्वर्ग प्राप्त करता है वह परभवमें शाश्वत-- अविनाशी मोक्षसुखको प्राप्त होता है।।२३।। अइसोहणजोएणं, सुद्धं हेमं हवेइ जह तह य। कालाईलद्धीए, अप्पा परमप्पओ हवदि।।२४।। जिस प्रकार अत्यंत शुभ सामग्रीसे -- शोधनसामग्रीसे अथवा सुहागासे स्वर्ण शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार काल आदि लब्धियोंसे आत्मा परमात्मा हो जाता है।।२४।। 'वरवयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ निरइ इयरेहिं। छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ।।२५।। व्रत और तपके द्वारा स्वर्गका प्राप्त होना अच्छा है परंतु अव्रत और अतपके द्वारा नरकके दुःख प्राप्त हो जाना अच्छा नहीं है। छाया और घाममें बैठकर इष्टस्थानकी प्रतीक्षा करनेवालोंमें बड़ा भेद है।।२५।। जो इच्छइ निस्सरिढुं, संसारमहण्णवस्स रुंदस्स। कम्मिंधणाण डहणं, सो झायइ अप्पयं सुद्धं ।।२६।। जो मुनि अत्यंत विस्तृत संसार महासागरसे निकलनेकी इच्छा करता है वह कर्मरूपी ईंधनको जलानेवाले शुद्ध आत्माका ध्यान करता है।।२६।। सव्वे कसाय मोत्तुं, गारवमयरायदोसवामोहं। लोयववहारविरदो, अप्पा झाएइ झाणत्थो।।२७।। ध्यानस्थ मुनि समस्त कषायों और गारव मद राग द्वेष तथा व्यामोहको छोड़कर लोकव्यवहारसे विरत होता हुआ आत्माका ध्यान करता है।।२७ ।। वरं व्रतैः पदं दैवं नाव्रतैर्बत नारकम्। छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान्।। -- इष्टोपदेशे पूज्यपादस्य
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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