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________________ ३१३ अष्टपाहुड जो साधु परद्रव्यमें रत है वह मिथ्यादृष्टि होता है और मिथ्यात्वरूप परिणत हुआ साधु दुष्ट आठ कर्मोंसे बँधता है।।१५।। परदव्वादो दुगई, सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ। इय णाऊण सदब्बे, कुणह रई विरइ इयरम्मि।।१६।। परद्रव्यसे दुर्गति और स्वद्रव्यसे निश्चित ही सुगति होती है ऐसा जानकर स्वद्रव्यमें रति करो और परद्रव्यमें विरति करो।।१६।। आदसहावादण्णं, सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि। तं परदव्वं भणियं, अवितत्थं सव्वदरसीहिं।।१७।। आत्मभावसे अतिरिक्त जो सचित्त-अचित्त अथवा मिश्र द्रव्य है वह सब परद्रव्य है, ऐसा यथार्थरूपसे पदार्थको जाननेवाले सर्वज्ञदेवने कहा है।।१७।। दुट्ठट्टकम्मरहियं, अणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं। सुद्धं जिणेहि कहियं, अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ।।१८।। आठ दुष्ट कोंसे रहित, अनुपम, ज्ञानशरीरी, नित्य और शुद्ध जो आत्मद्रव्य है उसे जिनेंद्र भगवान्ने स्वद्रव्य कहा है।।१८।। जे झायदि सद्दव्वं, परदव्वपरम्मुहा दु सुचरित्ता। ते जिणवराण मग्गं, अणुलग्गा लहदि णिव्वाणं।।१९।। जो स्वद्रव्यका ध्यान करते हैं, परद्रव्यसे पराङ्मुख रहते हैं और सम्यक्चारित्रका निरतिचार पालन करते हुए जिनेंद्रदेवके मार्गमें लगे रहते हैं वे निर्वाणको प्राप्त होते हैं।।१९।। जिणवरमएण जोई, झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं। जेण लहइ णिव्वाणं, ण लहइ किं तेण सुरलोयं ।।२०।। जो योगी ध्यानमें जिनेंद्रदेवके मतानुसार शुद्ध आत्माका ध्यान करता है वह स्वर्गलोकको प्राप्त होता है सो ठीक है, क्योंकि जिस ध्यानसे निर्वाण प्राप्त हो सकता है उससे क्या स्वर्गलोक प्राप्त नहीं हो सकता? ।।२०।। जो जाइ जोयणसयं, दियहेणेक्केण लेवि गुरुभारं। सो किं कोसद्धं पि हु, ण सक्कए जाहु भुवणयले।।२१।। जो मनुष्य बहुत भारी भार लेकर एक दिनमें सौ योजन जाता है वह क्या पृथिवीतलपर आधा कोश भी नहीं जा सकता? अवश्य जा सकता है।।२१।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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