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अष्टपाहुड वे भगवान् धन्य हैं जिन्होंने दर्शन ज्ञानरूपी मुख्य तथा श्रेष्ठ हाथोंसे विषयरूपी समुद्रमें पड़े हुए भव्य जीवोंको पार कर दिया है।।१५७।।
मायावेल्लि असेसा, मोहमहातरुम्मि आरूढा।
विसयविसपुप्फफुल्लिय, लुणंति मुणि णाणसत्थेहिं ।।१५८।। मोहरूपी महावृक्षपर चढ़ी हुई तथा विषयरूपी विषपुष्पोंसे फूली हई संपूर्ण मोहरूपी लताको मुनिजन ज्ञानरूपी शस्त्रके द्वारा छेदते हैं।।१५८ ।।
मोहमयगारवेहिं य, मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता।
ते सव्वदुरियखंभं, हणंति चारित्तखग्गेण ।।१५९।। जो मुनि मोह, मद और गौरवसे रहित तथा करुणाभावसे सहित हैं वे चारित्ररूपी तलवारके द्वारा समस्त पापरूपी स्तंभको काटते हैं।।१५९।।
गुणगणमणिमालाए, जिणमयगयणे णिसायरमुणिंदो।
तारावलिपरियरिओ, पुण्णिमइंदुव्व पवणपहे।।१६०।। जिस प्रकार आकाशमें ताराओंकी पंक्तिसे घिरा हुआ पूर्णिमाका चंद्र सुशोभित होता है उसी प्रकार जिनमतरूपी आकाशमें गुणसमुदायरूपी मणियोंकी मालाओंसे युक्त मुनींद्ररूपी चंद्रमा सुशोभित होता है।।१६०।।
चक्कहररामकेसवसुरवरजिणगणहराइ सोक्खाई।
चारणमुणिरिद्धीओ, विसुद्धभावा णरा पत्ता।।१६१।। विशुद्ध भावोंके धारक पुरुष चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, देवेंद्र, जिनेंद्र और गणधरादिके सुखोंको तथा चारणमुनियोंकी ऋद्धियोंको प्राप्त होते हैं।।१६१।।
सिवमजरामरलिंगमणोवममुत्तमं परमविमलमतुलं।
पत्ता वरसिद्धिसुहं, जिणभावणभाविया जीवा।।१६२।। जिनेंद्रदेवकी भावनासे विशोभित जीव उस उत्तम मोक्षसुखको पाते हैं जो कि आनंदरूप है, जरामरणके चिह्नोंसे रहित है, अनुपम है, उत्तम है, अत्यंत निर्मल है और तुलनारहित है।।१६२ ।।
ते मे तिहुवणमहिया, सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा।
किंतु वरभावसुद्धिं, दंसणणाणे चरित्ते य।।१६३।। वे सिद्ध परमेष्ठी जो कि त्रिभुवनके द्वारा पूज्य, शुद्ध, निरंजन तथा नित्य हैं, मेरे दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें शुद्धता प्रदान करें।।१६३।।