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कुदकुद-भारता
सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख तथा बुद्ध कहा जाने लगता है।
भावार्थ -- कर्मविमुक्त आत्मा केवलज्ञानसे युक्त होता है अतः ज्ञानी कहलाता है, कल्याणरूप है अतः शिव कहलाता है, परमपदमें स्थित है अतः परमेष्ठी कहलाता है, समस्त पदार्थों को जानता है अतः सर्वज्ञ कहलाता है, ज्ञानके द्वारा समस्त लोक-अलोकमें व्यापक है अतः विष्णु कहलाता है, चारों ओरसे सबको देखता है अतः चतुर्मुख कहलाता है और ज्ञाता है अत: बुद्ध कहलाता है।।१५१।।
इय घाइकम्ममुक्को, अट्ठारहदोसवज्जिओ सयलो।
तिहुवणभवणपदीवो, देऊ मम उत्तमं बोहिं ।।१५२।। इस प्रकार घातिया कर्मोंसे मुक्त, अठारह दोषोंसे वर्जित, परमौदारिक शरीरसे सहित और तीन लोकरूपी घरको प्रकाशित करनेके लिए दीपकस्वरूप अरहंत परमेष्ठी मुझे उत्तम रत्नत्रय प्रदान करें।।१५२ ।।
जिणवरचरणंबुरुहं, णमंति जे परमभत्तिरायण।
ते जम्मवेलिमूलं, खणंति वरभावसत्थेण।।१५३।। जो भव्य जीव उत्कृष्ट भक्ति तथा अनुरागसे भी जिनेंद्र देवके चरणकमलोंको नमस्कार करते हैं वे उत्कृष्ट भावरूपी शस्त्रके द्वारा जन्मरूपी वेलकी जड़को खोद देते हैं।।१५३।।
जह सलिलेण ण लिप्पड़, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए।
तह भावेण ण लिप्पइ, कसायविसएहिं सप्पुरिसो।।१५४।। जिस प्रकार कमलिनीका पत्र स्वभावसे ही जलसे लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार सत्पुरुष -- सम्यग्दृष्टि जीव भावके द्वारा कषाय और विषयोंसे लिप्त नहीं होता है।।१५४ ।।
तेवि य भणामिहं जे, सयलकलासीलसंजयगुणेहिं।
बहुदोसाणावासो, सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो।।१५५ ।। हम उन्हींको मुनि कहते हैं जो समस्त कला, शील और संयम आदि गुणोंसे युक्त हैं। जो अनेक दोषोंका स्थान तथा अत्यंत मलिनचित्त है वह मुनि तो दूर रहा, श्रावकके भी समान नहीं है।।१५५ ।।
ते धीरवीरपुरिसा, खमदमखग्गेण विप्फुरंतेण।
दुज्जयपबलबलुद्धरकसायभडणिज्जिया जेहिं ।।१५६।। वे पुरुष धीर-वीर हैं जिन्होंने चमकती हुई क्षमा और इंद्रियदमनरूपी तलवारके द्वारा कठिनतासे जीतनेयोग्य, अतिशय बलवान् तथा बलसे उत्कट कषायरूपी योद्धाओंको जीत लिया है।।१५६।।
धण्णा ते भयवंता, दंसणणाणग्गपवरहत्थेहिं। विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं।।१५७।।