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________________ चार कुंदकुंद-भारती प. पू. चा. च. श्री १०८ आचार्य शांतिसागर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धार संस्था, फलटण कार्यवृत्तांत प. पू. चा. च. श्री १०८ आचार्य शांतिसागर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धार संस्था की स्थापना विक्रम संवत् २०००-२००१ अर्थात् वीर निर्वाण संवत् २४७०-२४७१ में हुई। प्रस्तुत संस्था की स्थापना अपने आपमें एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी। इस पंचम कालके विगत ३००-४०० वर्षोंमें दिगंबर जैन साधुपरंपरा खंडित -सी हो गयी थी। उसे आगमानुसार पुनरुज्जीवित करनेका महान कार्य आचार्य श्री शातिसागर महाराजजी ने किया। जैन मुनि का जीवन यथार्थतः अंतर्मुख एवं आत्मस्वरूप पर केंद्रित होता है। बाह्य प्रापंचिक कार्योंमें उनकी कोई रुचि नहीं होती। आनुषंगिक रूपसे उनके द्वारा जो शुभभावरूप क्रियाँएँ होती हैं उनसे समाजकी सांस्कृतिक धारणा बनती है। समीचीन दिगंबरत्वका पुनरुज्जीवन, निर्ग्रथ दिगंबर मुनियोंका विहार, जैन समाजका स्वतंत्र अस्तित्व, जैनोंके धार्मिक-सांस्कृतिक अधिकारोंकी रक्षा, सनातन दिगंबरत्व पर होनेवाले आक्रमणोंका प्रतीकार, जैन समाजमें व्याप्त मिथ्यात्वपूर्ण कुप्रथाओंका निर्मूलन, श्रुतप्रकाशन आदिसंबंधी जो ऐतिकासिक कार्य इस कालखंडमें हुआ उसके पीछे आचार्यश्री की सहज प्रेरणा थी। आचार्य श्री जैसे महात्माकी प्रेरणा से जो कार्य हुआ उसे जैन समाज कदापि भूल नहीं सकता । परमपवित्र सर्वतोभद्र जिनागमकी रक्षाके लिए स्वयं श्री १०८ आचार्य शांतिसागर महाराजश्री की प्रेरणा से १०८ आचार्य श्री शांतिसागर दिगंबर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था की स्थापना वि. सं. २००१ अर्थात् वीर निर्वाण संवत् २४७० में हुई। आचार्यश्री के परममंगल आशीर्वादसे संस्था की स्थापना होनेसे इस संस्थाको समाज में एक महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्यपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। अंतिम तीर्थंकर महावीर भगवान् की ॐकार वाणीसे साक्षात् संबंधप्राप्त धवल, जयधवल, महाधवल ये ताडपत्रीय ग्रंथ मूडबिद्री में विराजमान हैं। प. पू. आचार्यश्री वर्षायोगके निमित्त कुंथलगिरी पर विराजमान थे, तब उन्हें पता चला कि इन ग्रंथोंका प्राय चार-पाँच हजार श्लोकप्रमाण अंश कीटकोंका भक्ष्य हो चुका है। यह बात सुनकर आचार्यश्री को आत्यंतिक पीड़ा हुई। उसी समय वहाँ १०५ भट्टारक जिनसेन स्वामी, नांदणी (कोल्हापुर), दानवीर संघपति श्रीमान गेंदामलजी, गुरुभक्त श्रीमान सेठ चंदूलालजी सराफ बारामती, श्रीमान रामचंद धनजी दावड़ा आदि धर्मानुरागी महानुभाव उपस्थित थे। इन सभी महानुभावों के समक्ष आचार्यश्रीजीने आगमकी रक्षासंबंधी अपनी चिंता एवं मंतव्य व्यक्त किया। आचार्यश्री की इच्छाको आदेश मानकर उन सभी धर्मानुरागियोंने आगमरक्षासंबंधी वहीं एक योजना बनायी और उसे कार्यान्वित करनेकी दिशामें प्रयत्न आरंभ किया। इस पुण्यकार्यमें समस्त दिगंबर जैन समाज सहभागी हुआ। उसी
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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