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कुंदकुंद-भारती
सर्वप्रथम मनुष्य के लिए ज्ञान सार है और ज्ञानसे भी अधिक सार सम्यग्दर्शन है, क्योंकि सम्यग्दर्शनसे सम्यक् चारित्र होता है और सम्यक्चारित्रसे निर्वाण होता है । । ३१ ।।
णाणमिदंसणम्मिय, तवेण चरियेण सम्मसहियेण । चोहं हि समाजोगे, सिद्धा जीवा ण संदेहो । । ३२ ।।
ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्वसहित तप और चारित्र इन चारोंके समागम होनेपरही जीव सिद्ध हुए हैं इसमें संदेह नहीं है ।। ३२ ।।
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कल्लाणपरंपरया, कहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं ।
सम्मर्द्दसणरयणं, अग्घेदि सुरासुरे लोए ।। ३३ ।।
जीव कल्याणकी परंपरा के साथ निर्मल सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं, इसलिए सम्यग्दर्शनरूपी रत्न लोकमें देव-दानवोंके द्वारा पूजा जाता है ।। ३३ ।।
लद्धूण य मणुयत्तं, सहियं तह उत्तमेण गुत्तेण ।
लद्धूण य सम्मत्तं, अक्खय सुक्खं च मोक्खं च ।। ३४ ।।
यह जीव उत्तम गोत्रसहित मनुष्य पर्यायको पाकर तथा वहाँ सम्यक्त्वको प्राप्त कर अक्षय सुख और मोक्षको प्राप्त होता है ।। ३४ ।।
विहरदि जाव जिणिदो, सहसट्ठ सुलक्खणेहिं संजुत्तो ।
चउतीस अतिसयजुदो, सा पडिया थावरा भणिया । । ३५ ।।
एक हजार आठ लक्षणों और चौंतीस अतिशयोंसे सहित जिनेंद्र भगवान् जब तक विहार करते हैं तब तक उन्हें स्थावर प्रतिमा कहते हैं । । ३५ ।।
बारसविहतवजुत्ता, कम्मं खविऊण विहिवलेण स्सं ।
वोसट्टचत्तदेहा, णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता । । ३६ ।।
जो बारह प्रकारके तपसे युक्त हो विधिपूर्वक अपने कर्मोंका क्षय कर व्युत्सर्ग --निर्ममतासे शरीर छोड़ते हैं वे सर्वोत्कृष्ट मोक्षको प्राप्त होते हैं । । ३६ ।।
इस प्रकार दर्शनपाहुड समाप्त हुआ ।
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