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छत्तीस
कुंदकुंद-भारती
व्यापकभाव या उपादान-उपादेयभावकी अपेक्षा विचार होता है तब यह बात आती है कि चूँकि कर्मरूप परिणमन पुद्गलरूप उपादानमें हुआ है इसलिए उसका कर्ता पुद्गलही है, जीव नहीं है। परंतु जब परंपरा नैमित्तिक भावकी अपेक्षा विचार होता है तब जीवके रागादिक भावोंका निमित्त पाकर पुद्गलमें कर्मरूप परिणमन हुआ है इसलिए उनका कर्ता जीव है। उपादान - उपादेयभावकी अपेक्षा रागादिकका कर्ता जीव है और परंपरा निमित्त नैमित्तिकभावकी अपेक्षा उदयावस्थाको प्राप्त रागादिक द्रव्य कर्म ।
जीवादिक नौ पदार्थोंके विवेचनके बीचमें कर्तृकर्मभावकी चर्चा छेड़ने में कुंदकुंद स्वामीका इतना ही अभिप्राय ध्वनित होता है कि यह जीव अपने आपको किसी पदार्थका कर्ता, धर्ता तथा हर्ता मानकर व्यर्थ ही रागद्वेषके प्रपंचमें पड़ता है। अपने आपको परका कर्ता माननेसे अहंकार उत्पन्न होता है और परकी इष्ट अनिष्ट परिणतिमें हर्ष-विषादका अनुभव होता है। जब तक परपदार्थों और तन्निमित्तक वैभाविक भावोंमें हर्ष-विषादका अनुभव होता रहता है तब तक यह जीव अपने ज्ञाता द्रष्टा स्वभावमें सुस्थिर नहीं होता। वह मोहकी धारामें बहकर स्वरूपसे च्युत रहता है। मोक्षाभिलाषी जीवको अपनी यह भूल सबसे पहले सुधार लेनी चाहिए। इसी उद्देश्यसे आस्रवादि तत्त्वोंकी चर्चा करनेके पूर्व कुंदकुंद महाराजने सचेत किया है कि 'हे मुमुक्षु प्राणी ! तू कर्तृत्वके अहंकारसे बच, अन्यथा राग-द्वेषकी दलदलमें फँस जावेगा।'
'आत्मा कर्मोंका कर्ता और भोक्ता नहीं है' निश्चय करके इस कथनका विपरीत फलितार्थ निकालकर जीवोंको स्वच्छंद नहीं होना चाहिए। क्योंकि अशुद्ध निश्चयनयके जीव रागादिक भावोंका और व्यवहार नयसे कर्मोंका कर्ता तथा भोक्ता स्वीकार किया गया है। परस्परविरोधी नयोंका सामंजस्य पात्रभेदके विचारसे ही संपन्न होता है।
इसी कर्तृकर्माधिकारमें अमृतचंद्र स्वामीने अनेक नयपक्षोंका उल्लेख कर तत्त्ववेदी पुरुषको उनके पक्षसे अतिक्रांत -- परे रहनेवाला बताया है। आखिर, नय वस्तुस्वरूपको समझनेके साधन हैं, साध्य नहीं। एक अवस्था ऐसी भी आती है जहाँ व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकारके नयोंके विकल्पोंका अस्तित्व नहीं रहता, प्रमाण अस्त हो जाता है और निक्षेप चक्रका तो पता ही नहीं चलता कि वह कहाँ गया -- उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्यो याति निक्षेपचक्रम् । किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वङ्कषे ऽस्मि - ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ।। ९ ।।
पापा
संसारचक्रसे निकलकर मोक्ष प्राप्त करनेके अभिलाषी प्राणीको पुण्यका प्रलोभन अपने लक्ष्यसे भ्रष्ट करनेवाला है। इसलिए कुंदकुंदस्वामी आस्रवाधिकारका प्रारंभ करनेके पहले ही इसे सचेत करते हुए कहते हैं कि हे मुमुक्षु ! तू मोक्षरूपी महानगरके लिए निकला है। देख, कहीं बीचमेंही पुण्यके प्रलोभनमें नहीं पड़ जाना। यदि उसके प्रलोभनमें पड़ा तो एक झटके में ऊपरसे नीचे आ जायेगा और सागरोंपर्यंतके लिए उसी पुण्यमहलमें नज़रकैद हो जायेगा।
अधिकारके प्रारंभमें कुंदकुंद महाराज कहते हैं कि लोग अशुभको कुशील और शुभको सुशील कहते हैं। परंतु वह सुशील शुभ कैसे हो सकता है जो इस जीवको संसारमें ही प्रविष्ट रखता है उससे बाहर नहीं निकलने देता । बंधनक अपेक्षा सुवर्ण और लोह -- दोनोंकी बेड़ियाँ समान हैं। जो बंधनसे बचना चाहता है उसे सुवर्णकी बेड़ी भी तोड़नी होगी। वास्तवमें यह जीव पुण्यका प्रलोभन तोड़नेमें असमर्थ सा हो रहा है। यदि अपने आत्मस्वातंत्र्य तथा शुद्धस्वभावकी