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प्रस्तावना
पैंतीस है, परंतु उपादान - उपादेय भाव या व्याप्य व्यापक भाव एक द्रव्यमें ही बनता है। जीवके रागादि भावका निमित्त पाकर पुद्गलमें और पुद्गलकी उदयावस्थाका निमित्त पाकर जीवमें रागादि भाव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार दोनोंमें निमित्तनैमित्तिक भाव होनेपर भी निश्चयनय उनमें कर्तृ-कर्मभावको स्वीकृत नहीं करता। निमित्त नैमित्तिक भावके होनेपर भी कर्तृकर्मभाव न माननेमें युक्ति यह दी है कि ऐसा माननेपर निमित्तमें द्विक्रियाकारित्वका दोष आता है अर्थात् निमित्त अपने परिणमनका भी कर्ता होगा और उपादानके परिणमनका भी कर्ता होगा, जो कि संभव नहीं है। कुंदकुंद स्वामीने कहा
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जीवो ण करदि घडं, णेव पडं णेव सेसगे दव्वे ।
जवजोगा उप्पादगा, य तेसिं हवदि कत्ता । । १०० ।।
जीव न तो घटको करता है न पटको करता है और न बाकीके अन्य द्रव्योंको कहता है, जीवके योग और उपयोग ही उनके कर्ता है।
इसकी टीकामें अमृतचंद्र स्वामीने लिखा है जो घटादिक और क्रोधादिक परद्रव्यात्मक कर्म हैं, यदि इन्हें आत्मा व्याप्य-व्यापक भावसे करता है तो तद्रूपताका प्रसंग आता है और निमित्त नैमित्तिक भावसे करता है तो नित्यकर्तृत्वका प्रसंग आता है परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि आत्मा उनसे न तो तन्मय ही है और न नित्यकर्ता ही है। अतः न तो व्याप्यव्यापक भावसे कर्ता है और न निमित्त नैमित्तिक भावसे। किंतु अनित्य जो योग और उपयोग हैं वे ही घटपटादि द्रव्योंके निमित्त कर्ता हैं। उपयोग और योग आत्माके विकल्प और व्यापार हैं अर्थात् जब आत्मा ऐसा विकल्प करता है कि मैं घटको बनाऊँ, तब काय योगके द्वारा आत्माके प्रदेशोंमें चंचलता आती है और चंचलताकी निमित्तता पाकर हस्तादिकके व्यापार द्वारा दंडनिमित्तक चक्रभ्रमि होती है तब घटादिककी निष्पत्ति होती है। यह विकल्प और योग अनित्य हैं, कदाचित् अज्ञानके द्वारा करनेसे आत्मा इनका कर्ता हो भी सकता है परंतु परद्रव्यात्मक कर्मोंका कर्ता कदापि नहीं हो सका। यहाँ निमित्त कारणको दो भागों में विभाजित किया गया है - एक साक्षात् निमित्त और दूसरा परंपरा निमित्त । कुंभकार अपने योग और उपयोगका कर्ता है, यह साक्षात् निमित्तकी अपेक्षा कथन है, क्योंकि इनके साथ कुंभकारका साक्षात् संबंध है और कुंभकारके योग तथा उपयोगसे दंड तथा चक्रादिमें जो व्यापार होता है तथा उससे जो घटादिककी उत्पत्ति होती है वह परंपरा निमित्तकी अपेक्षा कथन है। जब परंपरा निमित्तसे होनेवाले निमित्त नैमित्तिक भावको गौण कर कथन किया जाता है तब यह बात कही जाती है कि जीव घटपटादिका कर्ता नहीं है परंतु जब परंपरा निमित्तसे होनेवाले निमित्तनैमित्तिक भावको प्रमुखता देकर कथन किया जाता है तब जीव घटपटादिका कर्ता होता है। तात्पर्यवृत्तिकी निम्न पंक्तियों से यही भाव प्रकट होता है
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'इति परम्परया निमित्तरूपेण घटादिविषये जीवस्य कर्तृत्वं स्यात् । यदि पुनः मुख्यवृत्त्या निमित्तकर्तृत्वं भवति तर्हि जीवस्य नित्यत्वात् सर्वदैव कर्मकर्तृत्वप्रसङ्गाद् मोक्षाभावः । ' गाथा १००
इस प्रकार परंपरा निमित्त रूपसे जीव घटादिकका कर्ता होता है, यदि मुख्य वृत्तिसे जीवको निमित्त कर्ता माना जावे तो जीवके नित्य होनेसे सदा ही कर्मकर्तृत्वका प्रसंग आ जायेगा और उस प्रसंगसे मोक्षका अभाव हो जावेगा। 'घटका कर्ता कुम्हार नहीं है, पटका कर्ता कुविंद नहीं है और रथका कर्ता बढ़ई नहीं है', यह कथन लोकविरुद्ध अवश्य प्रतीत होता है पर यथार्थ में जब विचार किया जाता है तब कुम्हार, कुविंद और बढ़ई अपने-अपने उपयोग और योग कर्ता होते हैं। लोकमें जो उनका कर्तृत्व प्रसिद्ध है वह परंपरा निमित्तकी अपेक्षा संगत होता है।
मूल प्रश्न यह था कि कर्मका कर्ता कौन है? तथा रागादिकका कर्ता कौन है? इस प्रश्नके उत्तरमें जब व्याप्य