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कुदकुंद-भारती
परमसमाध्यधिकार वयणोच्चारणकिरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण।
जो झायदि अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स।।१२२।। जो वचनोच्चारणकी क्रियाको छोड़कर वीतराग भावसे आत्माका ध्यान करता है उसके परमसमाधि होती है।।१२२।।
संयमणियमतवेण दु, धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण।
जो झायइ अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स ।।१२३।। जो संयम, नियम और तपसे तथा धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानके द्वारा आत्माका ध्यान करता है उसके परमसमाधि होती है।।१२३।।
समताके बिना सब व्यर्थ है -- किं काहदि वणवासो, कायकलेसो विचित्तउववासो।
अज्झयणमोणपहुदी, समदा रहियस्स समणस्स।।१२४ ।। समताभावसे रहित साधुका वनवास, कायक्लेश, नाना प्रकारका उपवास तथा अध्ययन और मौन आदि धारण करना क्या करता है? कुछ नहीं।।१२४ ।।
स्थायी सामायिक व्रत किसके होता है? विरदो सव्वसावज्जे, तिगुत्तो पिहिदिदिओ।
तस्स सामाइगं ठाइ, इदि केवलिसासणे।।१२५ ।। जो समस्त सावद्य -- पापसहित कार्योंमें विरत है, तीन गुप्तियोंको धारण करनेवाला है तथा जिसने इंद्रियोंको निरुद्ध कर लिया है उसके स्थायी सामायिक होता है ऐसा केवली भगवान्के शासनमें कहा गया है।।१२५ ।।
जो समो सव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा।
तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे।।१२६ ।। जो स्थावर अथवा त्रस सब जीवोंमें समभाववाला है उसके स्थायी सामायिक होता है ऐसा केवली भगवान्के शासनमें कहा गया है।।१२६ ।।