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कुदकुद - भारता
एरिसभेदब्भासे, मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं ।
तं दढकरणणिमित्तं, पडिक्कमणादी पवक्खामि । । ८२ ।।
इस प्रकारके भेदज्ञानका अभ्यास होनेपर जीव मध्यस्थ होता है और उस मध्यस्थभावसे चारित्र
होता है। आगे उसी चारित्रमें दृढ़ करनेके लिए प्रतिक्रमण आदिको कहूँगा । । ८२ ।। प्रतिक्रमण किसके होता है?
मोत्तूण वयणरयणं, रागादीभाववारणं किच्चा ।
अप्पाणं जो झायदि, तस्स दु होदित्ति पडिकमणं । । ८३ ।।
जो वचनोंकी रचनाको छोड़कर तथा रागादिभावोंका निवारणकर आत्माका ध्यान करता है उसके प्रतिक्रमण होता है । । ८३ ।।
आराहणाइ वट्टइ, मोत्तूण विराहणं विसेसेण ।
सो पडिकमणं उच्च, पडिक्कमणमओ हवे जम्हा । । ८४ ।।
जो विराधनाको विशेष रूपसे छोड़कर आराधनामें वर्तता है वह साधु प्रतिक्रमण कहा जाता है, क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है।
भावार्थ -- यहाँ अभेद विवक्षाके कारण प्रतिक्रमण करनेवाले साधुको ही प्रतिक्रमण कहा गया है। । ८४ ।।
मोत्तूण अणायारं, आयारे जो दु कुणदि थिरभावं ।
सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा । । ८५ । ।
जो साधु अाचारको छोड़कर आचारमें स्थिरभाव करता है वह प्रतिक्रमण कहा जाता है, क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय होता है । । ८५ ।।
उम्मग्गं परिचत्ता, जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभावं ।
सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ।। ८६ ।।
जो उन्मार्गको छोड़कर जिनमार्गमें स्थिरभाव करता है वह प्रतिक्रमण कहलाता है, क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय होता है । । ८६ ।।
मोत्तू सल्लभावं, सिल्ले जो दु साहु परिणमदि ।
सो पडिकमणं उच्च, पडिकमणमओ हवे जम्हा ।। ८७ ।।
जो साधु शल्यभावको छोड़कर निःशल्यभावमें परिणमन करता है -- उसरूप प्रवृत्ति करता है वह प्रतिक्रमण कहा जाता है, क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है । । ८७ ।।