________________
कुंदकुंद - भारती
घन -- अत्यंत अहितकारी घातिया कर्मोंसे रहित, केवलज्ञानादि परम गुणोंसे सहित और चौंतीस अतिशयोंसे सहित ऐसे अरहंत होते हैं । । ७१ ।।
सिद्ध परमेष्ठीका स्वरूप
कम्मबंधा, अट्टमहागुणसमण्णिया परमा । लोयग्गठिदा णिच्चा, सिद्धा ते एरिसा होंति । ।७२ ।।
जिन्होंने अष्ट कर्मोंका बंध नष्ट कर दिया है, जो आठ महागुणोंसे सहित हैं, उत्कृष्ट हैं, लोकके अग्रभागमें स्थित हैं तथा नित्य हैं वे ऐसे सिद्ध परमेष्ठी होते हैं ।। ७२ ।। आचार्य परमेष्ठीका स्वरूप
२३४
पंचाचारसमग्गा, पंचिदियदंतिदप्पणिद्दलणा ।
धीरा गुणगंभीरा, आयरिया एरिसा होंति ।। ७३ ।।
जो पाँच प्रकारके (दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य) आचारोंसे परिपूर्ण हैं, पाँच इंद्रियरूपी हस्तियोंके गर्वको चूर करनेवाले हैं, धीर हैं तथा गुणोंसे गंभीर हैं ऐसे आचार्य होते हैं ।। ७३ ।। उपाध्याय परमेष्ठीका स्वरूप
रयणत्तयसंजुत्ता, जिणकहियपयत्थदेसया सूरा ।
णिक्कंखभावसहिया, उवज्झाया एरिसा होंति । । ७४ ।।
जोरत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) से संयुक्त हैं, जो जिनेंद्र भगवान्के द्वारा कहे हुए पदार्थोंका उपदेश करनेवाले हैं, शूरवीर हैं, परिषह आदिके सहनेमें समर्थ हैं तथा निष्कांक्षभावसे सहित हैं अर्थात् जो उपदेशके बदले किसी पदार्थकी इच्छा नहीं रखते हैं ऐसे उपाध्याय होते हैं । । ७४ ।। साधु परमेष्ठीका स्वरूप
वावारविप्पमुक्का, चउव्विहाराहणासयारत्ता ।
णिग्गंथा णिम्मोहा, साहू एदेरिसा होंति ।। ७५ ।
जो व्यापारसे सर्वथा रहित हैं, चार प्रकारकी ( दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप) आराधनाओंमें सदा
लीन रहते हैं, परिग्रह रहित हैं तथा निर्मोह हैं ऐसे साधु होते हैं ।। ७५ ।।
व्यवहारनयके चारित्रका समारोप कर निश्चयनयके चारित्रका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा एरिसयभावणा, ववहारणयस्स होदि चारित्तं ।
णिच्छयणयस्स चरणं, एत्तो उड्डुं पवक्खामि । । ७६ ।।
इस प्रकारकी भावनासे व्यवहार नयका चारित्र होता है, अब इसके आगे निश्चय नयके चारित्रको
कहूँगा।।७६।।