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नियमसार
जह लोयग्गे सिद्धा, तह जीवा संसिदी णेया।।४८।। जिस प्रकार लोकाग्रमें स्थित सिद्ध भगवान् शरीररहित, अविनाशी, अतींद्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा हैं उसी प्रकार (स्वभावदृष्टिसे) संसारमें स्थित जीव जो शरीररहित, अविनाशी, अतींद्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा हैं।।४८।।
एदे सव्वे भावा, ववहारणयं पडुच्च भणिदा दु।
सव्वे सिद्धसहावा, शुद्धणया संसिदी जीवा।।४९।। वास्तवमें ये सब भाव व्यवहारनयकी अपेक्षा कहे गये हैं। शुद्ध नयसे संसारमें रहनेवाले सब जीव सिद्ध स्वभाववाले हैं।
भावार्थ -- यद्यपि संसारी जीवकी वर्तमान पर्याय दूषित है तो भी उसे द्रव्य स्वभावकी अपेक्षा सिद्ध भगवान्के समान कहा गया है।।४९।।
परद्रव्य हेय है और स्वद्रव्य उपादेय है पुव्वुत्तसयलभावा, परदव्वं परसहावमिदि हेयं ।
सगदव्वमुवादेयं, अंतरतच्चं हवे अप्पा।।५०।। पहले कहे हुए समस्त भाव परद्रव्य तथा परस्वभाव हैं, इसलिए हेय हैं -- छोड़नेके योग्य हैं और आत्मा अंतस्तत्त्व -- स्वभाव तथा स्वद्रव्य है अतः उपादेय है।।५०।।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके लक्षण तथा उनकी उत्पत्ति के कारण विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं। संसयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ।।५१।। चलमलिणमगाढत्तविवज्जियं सद्दहणमेव सम्मत्तं। अधिगमभावो णाणं, हेयोपादेयतच्चाणं ।।५२।। सम्मत्तस्स णिमित्तं, जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अंतरहेऊ भणिदा, दंसणमोहस्स खयपहुदी।।५३।। सम्मत्तं सण्णाणं, विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं। ववहारणिच्चएण दु, तम्हा चरणं पवक्खामि।।५४।। ववहारणयचरित्ते, ववहारणयस्स होदि तवचरणं ।
णिच्छयणयचारित्ते, तवचरणं होदि णिच्छयदो।।५५।। विपरीत अभिप्रायसे रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है तथा संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित