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प्रस्तावना
इकत्तीस
वीतराग भाव ही है।
इस वीतराग भावके विषयमें श्री अमृतचंद्रस्वामीने लिखा है -- तदिदं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये न पुनरन्यथा।
अर्थात् इस वीतरागताका अनुगमन यदि व्यवहार और निश्चयनयका विरोध न करते हुए किया जाता है तो वह समीहित -- चिरभिलषित मोक्षकी सिद्धिके लिए होता है, अन्य प्रकार नहीं।
१७२ वीं गाथाकी टीकामें विस्तारसे कहा गया है कि यह मुमुक्षु प्राणी व्यवहार और निश्चयनयके आलंबनसे किस प्रकार आत्महितको सिद्ध करता है। अमृतचंद्र सूरि कहते हैं कि जो केवल व्यवहारनयका अवलंब लेते हैं वे बाह्य क्रियाओंको करते हुए भी ज्ञान चेतनाका कुछ भी सन्मान नहीं करते इसलिए प्रभूत पुण्यभारसे मंथरित चित्तवृत्ति होते हुए सुरलोक आदिके क्लेशोंकी परंपरासे चिरकाल तक संसारसागरमें ही परिभ्रमण करते रहते हैं। ऐसे जीवोंके विषयमें कहा
चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावारा।
चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति।। अर्थात् जो बाह्य आचरणके कर्तृत्वको ही प्रधान मानते हैं तथा स्वसमयके परमार्थ -- वास्तविक स्वरूपमें मुक्त व्यापार हैं -- स्वसमय -- स्वकीय शुद्ध स्वरूपकी प्राप्तिमें कुछ भी उद्यम नहीं करते वे बाह्याचरण के सारभूत शुद्ध निश्चयको जानते ही नहीं हैं।
इसी प्रकार जो केवल निश्चयनयका आलंबन लेकर केवल बाह्याचरणसे विरक्तबुद्धि हो जाते हैं -- पराङ्मुख हो जाते हैं वे भिन्न साध्य-साधनरूप व्यवहारकी अपेक्षा कर देते हैं तथा अभिन्न साध्य-साधनरूप निश्चयको प्राप्त होते नहीं हैं इसलिए अधरमें लटकते हुए केवल पापका ही बंध करते हैं। ऐसे जीवोंके विषयमें कहा है --
__ णिच्छयमालंबंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता।
णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा केई।। अर्थात् जो निश्चयके वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते हुए निश्चयाभासको ही निश्चय मानकर उसका आलंबन लेते हैं वे बाह्याचरणमें आलसी होते हुए प्रवृत्तिरूप चारित्रको नष्ट करते हैं। यही भाव उन्होंने अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथमें प्रकट किया है --
निश्चयमबुद्धमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते ।
नाशयति करणचरणं स बहिः करणालसो बालः।।५०।। अर्थ स्पष्ट है।
इसी प्रकार जो निश्चय और व्यवहारके यथार्थ स्वरूपको न समझकर निश्चयाभास और व्यवहाराभास -- दोनोंका आलंबन लेते हैं वे भी समीहित सिद्धिसे वंचित रहते हैं। जाननेमें केवल निश्चय और केवल व्यवहारके आलंबनसे विमुख जो अत्यंत मध्यस्थ रहते हैं अर्थात् पदार्थके जाननेमें अपने-अपने पदके अनुसार दोनों नयोंका आलंबन लेकर अंतमें दोनों नयोंके विकल्पसे परे रहनेवाली निर्विकल्प भूमिका -- शुद्धात्म परिणतिको प्राप्त होते हैं वे शीघ्र ही संसारसमुद्रको तैरकर शब्दब्रह्म -- शास्त्रज्ञानके स्थायी फलके भोक्ता होते हैं -- मोक्षको प्राप्त होते हैं। यही भाव उन्होंने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें भी दिखाया है--