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________________ ___कुन्दकुन्द-भारती जो आगमके अर्थमें निपुण हैं तथा संयम तप और ज्ञानसे सहित हैं ऐसे मुनि ही निश्चयसे अन्य मुनियोंके द्वारा सेवा करनेके योग्य तथा वंदना करनेके योग्य हैं। जो उक्त गुणोंसे रहित हैं ऐसे श्रमणाभास मुनियोंके प्रति अभ्युत्थानादि क्रियाओंका प्रतिषेध है।।३।। आगे श्रमणाभासका लक्षण कहते हैं -- ण हवदि समणो त्ति मदो, संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि । जदि सद्दहदि ण अत्थे, आदपधाणे जिणक्खादे।।६४।। यदि कोई मुनि संयम, तप तथा आगमसे युक्त होकर भी जिनेंद्र भगवान्के द्वारा कहे हुए जीवादि पदार्थका श्रद्धान नहीं करता है तो वह श्रमण नहीं है -- मुनि नहीं है ऐसा माना गया है। सम्यग्दर्शनसे हीन मुनि श्रमणाभास कहलाता है।।६४ ।। आगे समीचीन मुनिको जो दोष लगाता है वह चारित्रहीन है ऐसा कहते हैं -- अववददि सासणत्थं, समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि। किरियासु णाणुमण्णदि, हवदि हि सो णट्ठचारित्तो।।६५।। जो मुनि जिनेंद्रदेवकी आज्ञामें स्थित अन्य मुनिको देखकर द्वेषवश उनकी निंदा करता है तथा अभ्युत्थान आदि क्रियाओंके होनेपर प्रसन्न नहीं होता वह निश्चयसे चारित्ररहित है।।६५ ।। ___ आगे जो स्वयं गुणहीन होकर अपनेसे अधिक गुणवाले मुनिसे अपनी विनय कराना चाहता है उसकी निंदा करते हैं -- गुणदोधिगस्स विणयं, पडिच्छगो जोवि होमि समणोत्ति।। होज्जं गुणाधरो जदि, सो होदि अणंतसंसारी।।६६।। जो मुनि स्वयं गुणोंका धारक न होता हुआ भी 'मैं मुनि हूँ ' इस अभिमानवश अधिक गुणवाले महामुनियोंसे विनयकी इच्छा करता है वह अनंतसंसारी है अर्थात् अनंत कालतक संसारमें भ्रमण करनेवाला है।।६६।। आगे जो स्वयं गुणाधिक होकर हीनगुणवाले मुनिकी वंदनादि क्रिया करता है उसकी निंदा करते हैं -- अधिगगुणा सामण्णे, वटुंति गुणाधरेहिं किरियासु। जदि ते मिच्छवजुत्ता, हवंति पब्भट्टचारित्ता।।६७।। जो मुनि मुनिपदमें स्वयं अधिक गुणवाले होकर गुणहीन मुनियोंके साथ वंदनादि क्रियाओंमें प्रवृत्त होते हैं अर्थात् उन्हें नमस्कारादि करते हैं वे मिथ्यात्वसे युक्त तथा चारित्रसे भ्रष्ट होते हैं।।६७।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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