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प्रवचनसार उवरदपावो पुरिसो, समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु।
गुणसमिदिदोवसेवी, हवदि स भागी सुमग्गस्स।। ५९।। जो पुरुष पापोंसे विरत है, समस्त धर्मात्माओंमें साम्यभाव रखता है और गुणसमूहको सेवा करता है वह सुमार्गका भागी है अर्थात् मोक्षमार्गका पथिक है।।५९।। आगे इसीको पुनः स्पष्ट करते हैं --
असुभोवयोगरहिदा, सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा।
णित्थारयंति लोगं, तेसु पसत्थं लहदि भत्तो।।६०।। जो अशुभोपयोगसे रहित हैं और शुद्धोपयोग अथवा शुभोपयोगसे युक्त हैं वे उत्तम मुनि भव्य मनुष्यको तारते हैं। उनकी भक्ति करनेवाला मनुष्य प्रशस्त फलको पाता है।।६० ।। आगे गुणाधिक मुनियोंके प्रति कैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए यह कहते हैं --
दिट्ठा पगदं वत्थू, अब्भुट्टाणप्पधाणकिरियाहिं।
वट्टदु तदो गुणादो, विसेसिदव्वोत्ति उवदेसो।।१।। इसलिए निर्विकार निग्रंथ रूपके धारक उत्तम पात्रको देखकर जिनमें उठकर खड़े होनेकी प्रधानता है ऐसी क्रियाओंसे प्रवृत्ति करना चाहिए, क्योंकि गुणोंके द्वारा आदर विनयादि विशेष करना योग्य है ऐसा अरहंत भगवान्का उपदेश है ।।१।। आगे अब्भ्युत्थानादि क्रियाओंको विशेष रूपसे बतलाते हैं --
अब्भुट्ठाणं गहणं, उवासणं पोसणं च सक्कारं।
अंजलिकरणं पणमं, भणिदं इह गणाधिगाणं हि।।२।। इस लोकमें निश्चयपूर्वक अपनेसे अधिक गुणवाले महापुरुषोंके लिए उठकर खड़े होना, आइये, आइये आदि कहकर अंगीकार करना, समीपमें बैठकर सेवा करना, अन्नपानादिकी व्यवस्था कराकर पोषण करना, गुणोंकी प्रशंसा करते हुए सत्कार करना, विनयसे हाथ जोड़ना तथा नमस्कार करना योग्य कहा गया है।।६२।। आगे श्रमणाभास मुनियोंके विषयमें उक्त समस्त क्रियाओंका निषेध करते हैं --
अब्भुट्टेया समणा, सुत्तत्थविसारदा उपासेया।
संजमतवणाणड्डा, पणिवदणीया हि समणेहिं।।६३।। १. विशेषदव्वत्ति ज. वृ. । २. ज. वृ. में इस गाथाका ऐसा भाव प्रकट किया गया है कि निर्विकार निग्रंथ रूपके धारक तपोधनको अपने संघमें आता देख तीन दिन पर्यंत उनका उठकर खड़े होना आदि सामान्य क्रियाओं द्वारा सत्कार करना चाहिए और तीन दिन बाद विशिष्ट परिचय होनेपर गुणोंके अनुसार उनके सत्कारमें विशेषता करनी चाहिए।