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________________ २०० कुन्दकुन्द-भारती अप्पडिकुटुं' उवधिं, अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं। मुच्छादिजणणरहिदं, गेण्हदु समणो जदि वियप्पं ।।२३।। अपवादमार्गी उस परिग्रहको ग्रहण करे जो कि कर्मबंधका साधक न होनेसे अप्रतिक्रुष्ट हो -- अनिंदित हो, असंयमी मनुष्य जिसे पानेकी इच्छा न करते हों, ममता आदिकी उत्पत्तिसे रहित हो और थोड़ा हो। अपवादमार्गी मुनिको कमंडलु, पीछी और शास्त्र ग्रहण करनेकी आज्ञा है सो मुनि ऐसे कमंडलु आदिको ग्रहण करे जिसके निर्माणमें हिंसा आदि पाप न होते हों, जिसे देखकर अन्य मनुष्योंका मन न लुभा जावे, जो रागादि भावोंको बढ़ानेवाले न हों और परिमाणमें एकाधिक न हों। जैसे मुनि यदि कमंडलु ग्रहण करें तो मिट्टी या लकड़ीका अथवा तूंबा आदिका ग्रहण करें। ताँबा, पीतल या चर्म आदिका ग्रहण न करें तथा एकसे अधिक न रखें। क्योंकि चर्मका बना कमंडलु हिंसाजन्य और हिंसाका जनक होनेसे प्रतिक्रुष्ट है -- निंदित है। ताँबा, पीतल आदिका कमंडलु अन्य असंयमी मनुष्योंके द्वारा चुराया जा सकता है। और एकसे अधिक होनेपर उसके संरक्षणादिजन्य आकुलता उत्पन्न होने लगती है। इसी प्रकार पीछी भी ऐसी हो जो सजावटसे रहित हो। मयूरपिच्छसे बनी हुई। शास्त्र भी एक दो से अधिक साथमें न रखें। कितनेही साधुओंके साथ अनेकों शास्त्रोंसे भरी पेटियाँ चलती हैं। यह जिज्ञासाके विरुद्ध होनेसे ठीक नहीं है।।२३।। आगे उत्सर्ग मार्ग ही वस्तुधर्म है अपवाद मार्ग नहीं ऐसा उपदेश देते हैं -- किं किंचण त्ति तक्कं, अपुणब्भवकामिणोध देहेवि। संगत्ति जिणवरिंदा, अप्पडिकम्मत्तिमुद्दिट्ठा ।।२४।। जब मोक्षके अभिलाषी मुनिके, शरीरमें भी यह परिग्रह है, ऐसा जानकर श्री जिनेंद्रदेवने अप्रतिकर्मत्व अर्थात् ममत्वभावसहित शरीरकी क्रियाके त्यागका उपदेश दिया है तब उस मुनिके क्या अन्य कुछ भी परिग्रह है ऐसा विचार होता है। जब श्री जिनेंद्रदेवने शरीरको भी परिग्रह बतलाकर उसमें ममतामयी क्रियाओंके त्यागका उपदेश दिया है तब अन्य परिग्रह मुनि कैसे रख सकते हैं? ।।२४ ।। आगे यथार्थमें उपकरण कौन है? यह बतलाते हैं -- उवयरणं जिणमग्गे, लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पि य विणओ, सुत्तज्झयणं च पण्णत्तं ।।२५।। १. अप्पदिकुटुं ज. वृ. । २. असंजदजणस्स ३. रहियं ज. वृ. । ४. जदिवि अप्पं । ५. देहोवि ज. वृ. । ६. संगोत्ति ज. वृ. । ७. अप्पडिकम्मत्त । ८. २४ वीं गाथाके आगे ज. वृ. में स्त्रीमुक्तिका निराकरण करनेवाली ११ गाथाओंकी व्याख्या अधिक की गयी है। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं -- (गाथाएँ अगले पृष्ठ पर देखिए ------
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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