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________________ कुन्दकुन्द - भारती एदे खलु मूलगुणा, समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । तेसु पमत्तो समणो, छेदोवट्ठावगो होदि ।।९।। पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पाँच इंद्रियोंका निरोध करना, केशलोच करना, छह आवश्यक, वस्त्रका त्याग, स्नानका त्याग, पृथिवीपर सोना, दंतधावन नहीं करना, खड़े-खड़े भोजन करना और एक बार भोजन करना ये मुनियोंके मूलगुण निश्चयपूर्वक श्री जिनेंद्रदेवके द्वारा कहे गये हैं। जो मुनि इनमें प्रमाद करता है वह छेदोपस्थापक होता है। ये अट्ठाईस मूलगुण निर्विकल्प सामायिक चारित्रके भेद हैं, इन्हींसे मुनिपदकी सिद्धि होती है। इनमें प्रमाद होनेसे निर्विकल्पक सामायिक चारित्रका भंग हो जाता है इसलिए इनमें सदा सावधान रहना चाहिए। मुनिके अनुभवमें जब यह बात आवे कि मेरे संयमके अमुक भेदमें भंग हुआ है तब वह उसी भेदमें आत्माको फिरसे स्थापित करे। ऐसी दशामें वह मुनि छेदोपस्थापक कहलाता है । । ८-९ ।। -- आगे आचार्योंके प्रव्रज्यादायक और छेदोपस्थापकके भेदसे दो भेद हैं ऐसा कहते हैं लिंगग्गहणं तेसिं, गुरुत्ति पव्वज्जदायगो होदि । छेदेसूवट्टग्गा, सेसा णिज्जावया समणा । । १० । । नियोको पूर्वोक्त लिंग ग्रहण करानेवाले गुरु प्रव्रज्यादायक -- दीक्षा देनेवाले गुरु होते हैं और एकदेश तथा सर्वदेशके भेदसे दो प्रकारका छेद होनेपर जो पुनः उसी संयममें फिरसे स्थापित करते हैं वे अन्य मुनि निर्यापक गुरु कहलाते हैं। विशाल मुनिसंघ में दीक्षागुरु और निर्यापक गुरु इस प्रकार पृथक् पृथक् दो गुरु होते हैं। दीक्षागुरु नवीन शिष्यों को दीक्षा देते हैं और निर्यापक गुरु संयमका भंग होनेपर संघस्थ मुनियोंको प्रायश्चित्तादिके द्वारा पुनः संयममें स्थापित करते हैं । अल्पमुनिसंघमें एक ही आचार्य दोनों काम कर सकते हैं ।। १० ।। आगे संयमका भंग होनेपर उसके पुनः जोड़नेकी विधि कहते हैं। पयदम्हि समारद्धे, छेदो समणस्स कायचेट्ठम्मि | जादिदि त पुणो, आलोयणपुविया किरिया ।। ११ । । "छेदुपजुत्तो समणो, समणं ववहारिणं जिणमदम्मि । आसेज्जालोचित्ता, उवट्ठिदं तेण कायव्वं । । १२ । । यत्नपूर्वक प्रारंभ हुई शरीरकी चेष्टामें यदि साधुके भंग होता है तो उसका आलोचनापूर्वक फिरसे १. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । २. ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापन । ३. स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और कर्ण इनका निरोध करना । ४. समता, वंदन, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग । ५. छेदपउत्तो ज. वृ. ।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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