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प्रवचनसार
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'जधजादरूवजादं, 'उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं ।
रहितं हिंसादीदो, अपडिकम्मं हवदि लिंगं । । ५ । ।
'मुच्छारंभविजुत्तं, जुत्तं 'उवजोगजोगसुद्धीहिं ।
लिंगंणपरावेक्खं, अपुणब्भवकारणं "जोहं । । ६ । । जुगलं ।।
जो सद्योजात बालकके समान निर्विकार निग्रंथ रूपके धारण करनेसे उत्पन्न होता है, जिसमें शिर तथा दाढ़ी-मूँछके बाल उखाड़ दिये जाते हैं, जो शुद्ध है -- निर्विकार है, हिंसादि पापोंसे रहित है और शरीरकी सँभाल तथा सजावटसे रहित है वह बाह्य लिंग है। तथा जो मूर्च्छा -- परपदार्थमें ममता परिणाम और आरंभसे रहित है, उपयोग और योगकी शुद्धिसे सहित है, परकी अपेक्षासे दूर है एवं मोक्षका कारण है वह श्री जिनेंद्रदेवके द्वारा कहा हुआ अंतरंगलिंग - भावलिंग है। जैनागममें बहिरंग लिंग और अंतरंग लिंग दोनों ही लिंग परस्पर सापेक्ष रहकर ही कार्यके साधक बतलाये हैं। अंतरंग लिंगके बिना बहिरंग केवल नटके समान वेष मात्र है, उससे आत्माका कुछ भी कल्याण साध्य नहीं है और बहिरंग लिंगके बिना अंतरंग लिंगका होना संभव नहीं है। क्योंकि जब तक बाह्य परिग्रहका त्याग होकर यथार्थ निग्रंथ अवस्था प्रकट नहीं हो जाती तब तक मूर्च्छा या आरंभरूप आभ्यंतर परिग्रहका त्याग नहीं हो सकता और जबतक हिंसादि पापोंका अभाव तथा शरीरासक्तिका भाव दूर नहीं हो जाता तबतक उपयोग और योगकी शुद्धि नहीं हो सकती। इस प्रकार उक्त दोनों लिंग ही अपुनर्भव -- फिरसे जन्म धारण नहीं करना अर्थात् मोक्षके कारण हैं ।। ५-६ ।।
आगे श्रमण कौन होता है? यह कहते हैं
आदाय तंपि गुरुणा, परमेण तं णमंसित्ता ।
सोच्चा सवयं किरियं, उवट्ठिदो होदि सो समणो ।। ७ ।।
जो परमभट्टारक अर्हंत परमेश्वर अथवा दीक्षागुरुसे पूर्वोक्त दोनों लिंगोंको ग्रहण कर उन्हें नमस्कार करता है और व्रतसहित आचारविधिको सुनकर शुद्ध आत्मस्वरूपमें उपस्थित रहता है -- अपने उपयोगको अन्य पदार्थोंसे हटाकर शुद्ध आत्मस्वरूपके चिंतनमें लीन रहता है वह श्रमण होता है ।। ७ ।।
आगे यद्यपि श्रमण अखंडित सामायिक चारित्र को प्राप्त होता है तो भी कदाचित् छेदोपस्थापक हो जाता है, यह कहते हैं.
वदसमिदिंदियरोधो, लोचावस्सक 'मचेलमण्हाणं ।
खिदिसयणमदंतयणं, ठिदिभोयणमेयभत्तं च ॥ ८ ॥
१. जथजादरूपजादं ज. वृ. । २. उप्पादिय ज. वृ. । ३. मुच्छारंभविमुक्कं ज. वृ. । ४. उवओग ज. वृ. । ५. जेण्हं ज. वृ. ।
६. लोचावस्सय ज. वृ. ।
७. --मदंतवणं ज. वृ. ।