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प्रवचनसार
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एवं णाणप्पाणं, दंसणभूदं अदिदियमहत्थं ।
धुवमचलमणालंबं, मण्णेऽहं अप्पगं सुद्धं । । १०० ।।
मैं आत्माको ऐसा मानता हूँ कि वह ज्ञानात्मक है, दर्शनरूप है, अतींद्रिय है, सबसे महान् है, नित्य है, अचल है, परपदार्थोंके आलंबनसे रहित है और शुद्ध है । । १०० ।।
आगे विनाशी होनेके कारण आत्माके सिवाय अन्य पदार्थ प्राप्त करनेयोग्य नहीं हैं ऐसा उपदेश देते हैं।
देहा वा दविणा वा, सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा ।
जीवस संति धुवा, धुवोवओगप्पगा अप्पा । । १०१ । ।
शरीर अथवा धन, अथवा सुख-दुःख, अथवा शत्रु-मित्र जन, ये सभी जीवके अविनाशी नहीं हैं। केवल ज्ञान दर्शनस्वरूप शुद्ध आत्मा ही अविनाशी है।
शरीर, धन तथा शत्रु-मित्रजन तो स्पष्ट जुदे ही हैं और इन्हें नष्ट होते प्रत्यक्ष देखते भी हैं, परंतु इच्छाकी पूर्ति से होनेवाला सुख और इच्छाके सद्भावमें उत्पन्न होनेवाला दुःख भी आत्मासे जुदा है अर्थात् आत्माका स्व स्वभाव नहीं है। तथा संयोगजन्य है अतः क्षणभंगुर है। जो सुख इच्छाके अभावमें उत्पन्न होता है उसमें किसी बाह्य पदार्थके आलंबनकी अपेक्षा नहीं रहती अतः वह नित्य है तथा स्वस्वभावरूप है। परंतु ऐसा सुख वीतराग - सर्वज्ञदशाके प्रकट हुए बिना प्राप्त नहीं हो सकता । । १०१ । ।
आगे शुद्धात्माकी उपलब्धिसे क्या होता है ? यह कहते हैं।
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जो एवं जाणित्ता, झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा |
सागाराणागारो, खवेदि सो मोहदुग्गंठिं । । १०२ ।।
गृहस्थ अथवा मुनि ऐसा जानकर परमात्मा • उत्कृष्ट आत्मस्वरूपका ध्यान करता है वह विशुद्धात्मा होता हुआ मोहकी दुष्ट गाँठको क्षीण करता है -- खोलता है।
शुद्धात्मक उपलब्धिका फल अनादिकालीन मोहकी दुष्ट गाँठको खोलना है ऐसा जानकर उसकी प्राप्तिके लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। । १०२ । ।
आगे मोहकी गाँठ खुलनेसे क्या होता है? यह कहते हैं.
जो हिदमोहगंठी, रागपदोसे खवीय सामण्णे ।
होज्जं समसहुदुक्खो, सो सोक्खं अक्खयं लहदि । । १०३ । ।
जो पुरुष मोहकी गाँठको खोलता हुआ मुनि अवस्थामें राग द्वेषको नष्टकर सुख-दुःखमें समान दृष्टिवाला होता है वह अविनाशी मोक्षसुखको पाता है।
मोक्षका अविनाशी सुख उसी जीवको प्राप्त हो सकता है जो सर्वप्रथम दर्शनमोहकी गाँठको