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कुन्दकुन्द-भारती प्रकार होता है जिससे कि उसे मनुष्यादि पर्याय धारण करना पड़ते हैं --
आदा कम्ममलिमसो, परिणामं लहदि कम्मसंजुत्तं ।
तत्तो सिलिसदि कम्म, तम्हा कम्मं तु परिणामो।।२९।। यह जीव अनादिबद्ध कर्मोंसे मलिन होता हुआ कर्मसंयुक्त परिणामको प्राप्त होता है -- मिथ्यात्व तथा राग द्वेषादि रूप विभाव दशाको प्राप्त होता है और उस विभाव दशासे पुद्गलात्मक द्रव्य कर्मके साथ संबंधको प्राप्त करता है इससे यह सिद्ध हुआ कि भावकर्मरूप आत्माका सराग परिणाम ही कर्मका कारण होनेसे कर्म कहलाता है।
___ यह जीव अनादि कालसे कर्मकलंकसे दूषित होकर मिथ्यात्व तथा राग द्वेषादिरूप परिणमन करता है उसके फलस्वरूप इसके साथ द्रव्यकर्मका संबंध हो जाता है और जब उसका उदय आता है तब इसे मनुष्यादि पर्यायोंमें भ्रमण करना पड़ता है। यह द्रव्यकर्म और भावकर्मका कार्यकारणभाव अनादि कालसे चला आ रहा है इसलिए इतरेतराश्रय दोषकी आशंका नहीं करना चाहिए। अब यह सिद्ध करते हैं कि यथार्थमें आत्मा द्रव्यकर्मोंका कर्ता नहीं है --
परिणामो सयमादा, सा पुण किरयत्ति होइ जीवमया।
किरिया कम्मत्ति मदा, तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता।।३०।। जीवका जो परिणाम है वह स्वयं जीव है -- जीवरूप है, उसकी जो क्रिया है वह भी जीवसे निर्वृत्त होनेके कारण जीवमयी है। और चूँकि रागादि परिणतिरूप क्रिया ही कर्म -- भावकर्म मानी गयी है अतः जीव उसीका कर्ता है, पुद्गलरूप द्रव्यकर्मका कर्ता नहीं है।
कर्ता और कर्मका व्यवहार स्वद्रव्यमें ही हो सकता है इसलिए जीव रागादिभाव कर्मका ही कर्ता है, पुद्गलरूप द्रव्यकर्मका कर्ता नहीं है। भावकर्म जीवकी निज अशुद्ध परिणति है और द्रव्यकर्म पुद्गल द्रव्यकी परिणति है। तत्त्वदृष्टिसे दो विजातीय द्रव्योंमें कर्ताकर्म व्यवहार त्रिकालमें भी संभव नहीं है।।३० ।। अब आत्मा जिस स्वरूप परिणमन करता है उसका प्रतिपादन करते हैं --
परिणमदि चेयणाए, आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा।
सा पुण णाणे कम्मे, फलम्मि वा कम्मणो भणिदा।।३१।। आत्मा चेतनारूप परिणमन करता है और वह चेतना ज्ञान, कर्म तथा कर्मफलके भेदसे तीन प्रकारकी कही गयी है।
जीव चाहे शुद्ध दशामें हो चाहे अशुद्ध दशामें, प्रत्येक दशामें वह चेतनारूप ही परिणमन करता है। वह चेतना ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके भेदसे तीन प्रकारकी कही गयी है।।३१।।
आगे उक्त तीन चेतनाओंका स्वरूप कहते हैं --
नहीं है।