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________________ प्रवचनसार १६३ अभिभव नहीं हो जाता। जिस प्रकार कि सुवर्णमें जड़े हुए माणिक्य रत्नका अभिभव नहीं होता है उसी प्रकार मनुष्यादि शरीरसे संबद्ध जीवका अभिभव नहीं होता। उन पर्यायोंमें जो जीव अपने शुद्ध स्वभावको प्राप्त नहीं कर पाते हैं उसका कारण है कि वहाँ वे अपने-अपने उपार्जित कर्मोंके अनुरूप परिणमन करते हैं, जिस प्रकार कि जलका प्रवाह वनमें अपने प्रदेशों और स्वादसे नीम चंदनादि वृक्षरूप होकर परिणमन करता है। वहाँ वह जल अपने द्रव्यस्वभाव और स्वादस्वभावको प्राप्त नहीं कर पाता है उसी प्रकार यह आत्मा भी जब नर नारकादि पर्यायोंमें अपने प्रदेश और भावोंसे कर्मरूप होकर परिणमन करता है तब वह शुद्ध चिदानंद स्वभावको प्राप्त नहीं होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जीव परिणमनके दोषसे यद्यपि अनेकरूप हो जाता है तथापि उसके स्वभावका नाश नहीं होता।।२६।। आगे, जीव द्रव्यपनेकी अपेक्षा व्यवस्थित होनेपर भी पर्यायकी अपेक्षा अनवस्थित है -- नाना रूप है यह प्रकट करते हैं -- .. जायदि णेव ण णस्सदि, खणभंगसमुब्भवे जणे कोई। जो हि भवो सो विलओ, सभवविलयत्ति ते णाणा।।२७।। जिसमें प्रत्येक क्षण उत्पाद और व्यय हो रहा है ऐसे जीवलोकमें द्रव्यदृष्टिसे न तो कोई जीव उत्पन्न होता है और न कोई नष्ट ही होता है। द्रव्यदृष्टिसे जो उत्पाद है वही व्यय है -- दोनों एकरूप हैं, परंतु पर्यायदृष्टिसे उत्पाद और व्यय नानारूप हैं -- जुदे-जुदे हैं। जैसे किसीने घड़ा फोड़कर कँडा बना लिया। यहाँ अब मिट्टीकी ओर दृष्टि डालकर विचार करते हैं तब कहना पड़ता है कि न मिट्टी उत्पन्न हुई है और न नष्ट ही। जो मिट्टी घड़ारूप थी वही तो फँडारूप हुई है, इसलिए दोनों एक ही हैं, परंतु जब घड़ा और कँडा इन दोनों पर्यायोंकी ओर दृष्टि देकर विचार करते हैं तब कहना पड़ता है कि घड़ा नष्ट हो गया और कूँडा उत्पन्न हो गया। तथा यह दोनों पर्याय कालक्रमसे हुईं अतः एक न होकर अनेक हैं। इस कथनसे यह सिद्ध हुआ कि पदार्थ द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा अवस्थित तथा एक है और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा अनवस्थित तथा अनेक है।।२७।। अब जीवकी अस्थिर दशाको प्रकट करते हैं -- तम्हा दु णत्थि कोई, सहावसमयट्ठिदोत्ति संसारे। संसारो पुण किरिया, संसरमाणस्स दव्वस्स।।२८।। इसलिए संसार में कोई भी जीव स्वभावसे अवस्थित है -- स्थिररूप है ऐसा नहीं है और चारों गतियोंमें संसरण -- भ्रमण करनेवाले जीव द्रव्यकी जो क्रिया है -- अन्य अन्य अवस्थारूप परिणति है वही संसार है।।२८।। आगे बतलाते हैं कि अशुद्ध परिणतिरूप संसारमें जीवके साथ पुद्गलका संबंध किस
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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