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कुन्दकुन्द-भारता
स्पर्शनादि इंद्रियोंके द्वारा इष्ट विषयोंको पाकर अशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वरूप स्वभावसे परिणमन करनेवाला आत्मा ही स्वयं सुखरूप होता है, शरीर नहीं।
सुख चेतनका गुण है इसलिए वह उसीमें व्यक्त होता है, शरीर जड़ पदार्थ है इसलिए उसमें नहीं पाया जाता है।।६५।। आगे इसीका समर्थन करते हैं --
एदंतेण हि देहो, सुहं ण देहिस्स कुणइ सग्गे वा।
विसयवसेण दु सोक्खं, दुक्खं वा हवदि सयमादा।।६६।। यह निश्चय है कि शरीर आत्माको स्वर्गमें भी सुखरूप नहीं करता किंतु यह आत्मा ही विषयोंके वश स्वयं सुख अथवा दुःखरूप हो जाता है।।६६ ।।
___ आगे आत्मा स्वयं ही सुखस्वरूप है इसलिए जिस प्रकार देह सुखका कारण नहीं है उसी प्रकार पंचेंद्रियोंके विषय भी सुखके कारण नहीं हैं ऐसा कहते हैं --
तिमिरहरा जइ दिट्ठी, जणस्स दीवेण णत्थि 'कादव्वं ।
तध सोक्खं सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति।।६७।। यदि किसी मनुष्यकी दृष्टि अंधकारको नष्ट करनेवाली है तो जिस प्रकार उसे दीपकसे कुछ कार्य नहीं होता उसी प्रकार आत्मा यदि स्वयं सुखरूप होती है तो उसमें पंचेंद्रियोंके विषय क्या करते हैं? अर्थात् कुछ नहीं।।६७।। आगे ज्ञान और सुख आत्माका स्वभाव है यह दृष्टांत से सिद्ध करते हैं --
सयमेव जधादिच्चो, तेजो उण्हो य देवदा णभसि।
सिद्धो वि तधा णाणं, सुहं च लोगे तधा देवो।।६८।। जिस प्रकार आकाशमें सूर्य स्वयं तेजरूप है, उष्ण है और देवगति नामकर्मका उदय होनेसे देव है उसी प्रकार सिद्ध भगवान भी इस जगत्में ज्ञानरूप हैं, सुखरूप हैं और देवरूप हैं।।६८ ।।
इत्यानन्दाधिकार
१. कायव्वं २. ६८ वीं गाथाके आगे जयसेन वृत्तिमें निम्नलिखित दो गाथाएँ अधिक व्याख्यात हैं --
'तेजो दिट्ठी णाणं इड्डी सोक्खं तहेव ईसरियं । तिहुवणपहाणदइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो।।१।। तं गुणदो अधिगदरं अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं। अपणब्भावणिबद्धं पणमामि पुणो पुणो सिद्धं' ।।२।।