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प्रवचनसार
अर्थात् केवलदर्शन लोक-अलोकमें विस्तृत है, समस्त अनिष्ट नष्ट हो चुकते हैं और जो इष्ट होता है वह उन्हें प्राप्त हो चुकता है। इस प्रकार केवलज्ञान सुखरूप होता है।।६१।। आगे केवलज्ञानियोंके ही पारमार्थिक सुख है ऐसी श्रद्धा करते हैं --
ण हि सद्दहंति सोक्खं, सुहेसु परमंति विगदघादीणं
सुणिऊण ते अभव्वा, भव्वा वा तं पडिच्छंति।।२।। जिनके घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे केवली भगवान्का सुख सब सुखोंमें उत्कृष्ट है ऐसा सुनकर जो श्रद्धान नहीं करते वे अभव्य हैं और जो श्रद्धान करते हैं वे भव्य हैं।६२।। आगे परोक्ष ज्ञानियोंके जो इंद्रियजन्य सुख होता है वह अपारमार्थिक है ऐसा कहते हैं --
मणुआसुरामरिंदा, अहिदुआ. इंदिएहिं सहजेहिं।
असहंता तं दुक्खं, रमंति विसएसु रम्मेसु।।६३।। सहजोत्पन्न इंद्रियोंसे पीड़ित मनुष्य, धरणेंद्र और देवोंके इंद्र -- स्वामी उस इंद्रियजन्य दुःखको न सहते हुए रमणीक विषयोंमें क्रीड़ा करते हैं।।६३।। आगे जितनी इंद्रियाँ हैं वे स्वभावसे ही दुःखरूप हैं ऐसा विचार करते हैं --
जेसिं विषयेसु रदी, तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं।
जदि तंण हि सब्भावं, वावारो णस्थि विसयत्थं ।।६४।। जिन जीवोंकी विषयोंमें प्रीति है उनके दुःख स्वभावसे ही जानो, क्योंकि यदि वह दुःख उनके स्वभावसे उत्पन्न हुआ नहीं होता तो विषयोंके लिए उनका व्यापार नहीं होता।
जिस प्रकार व्याधिसे पीड़ित मनुष्योंका औषधिके लिए व्यापार होता है उसी प्रकार इंद्रियोंसे पीड़ित मनुष्योंका विषयोंके लिए व्यापार होता है। मनुष्य अनुकूल विषय पानेके लिए निरंतर व्याकुल रहते हैं, इससे विदित होता है कि वे इंद्रियजन्य दुःखको सहन नहीं कर सकते हैं।।६४ ।।
आगे मुक्तात्माओंको शरीरके बिना भी सुख है इसलिए शरीर सुखका साधन नहीं है यह कहते हैं --
पय्या इढे विसये, फासेहिं समस्सिदे सहावेण। परिणममाणो अप्पा, सयमेव सुहं ण हवदि देहो।।६५।।
१. सुणिदूण ज. वृ.। २. समसुखशीलितमनसां च्यवनमपि द्वेषमेति किमु कामा।
स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्ग पुनरङ्गमङ्गाराः।। ज. वृ. । ३. अहिदुदा ज. वृ. । ४. रई ज. वृ. । ५. जइ ज. वृ. ।