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कुन्दकुन्द-भारता
आगे अरहंत भगवानके पुण्यकर्मका उदय बंधका कारण नहीं है यह कहते हैं --
पुण्णफला अरहंता, तेसिं किरिया पुणो हि ओदयिगा।
मोहादीहिं विरहिदा, तम्हा सा खाइगत्ति मदा।।४५।। अरहंत भगवान् तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृतिके फल हैं अर्थात् अरहंत पद तीर्थंकर नामक पुण्यप्रकृतिके उदयसे होता है और उनकी शारीरिक तथा वाचनिक क्रिया निश्चयसे कर्मोदयजन्य है, तथापि वह क्रिया मोह राग द्वेषादि भावोंसे रहित है इसलिए क्षायिक मानी गयी है।
यद्यपि औदयिक भाव बंधके कारण होते हैं तथापि मोहका उदय साथ न होनेसे अरहंत भगवान् के औदयिक भाव बंधके प्रति अकिंचित्कर रहते हैं।।४५।।। आगे केवलियोंकी तरह सभी जीवोंके स्वभावका कभी विघात नहीं होता ऐसा कहते हैं --
जदि सो सुहो व असुहो, ण हवदि आदा सयं सहावेण।
संसारोवि ण विज्जदि, सव्वेसिं जीवकायाणं।।४६।। यदि वह आत्मस्वभावसे शुभ अथवा अशुभरूप नहीं होवे तो समस्त जीवोंके संसार ही नहीं होवे। जिस प्रकार स्फटिकमणि जपा तथा तपिच्छ आदि फूलोंके संसर्गसे लाल तथा नीला परमणमन करन् लगता है उसी प्रकार यह आत्मा परिणामी होनेके कारण शुभ अशुभ कर्मोदयका निमित्त मिलनेसे शुभ अशुभरूप परिणमन करने लगता है। केवली भगवानके शुभ अशुभ कर्मोंका उदय छूट जाता है इसलिए उन्हें शुभ अशुभरूप परिणमनसे रहित कहा है, परंतु संसारी जीवोंके वह निमित्त विद्यमान रहता है इसलिए उन्हें शुभ अशुभ परिणमनसे सहित माना गया है। यदि केवली भगवान् की तरह संसारके प्रत्येक प्राणीको शुभ अशुभ परिणमनसे रहित मान लिया जाये तो उनके संसारका अभाव हो जावे -- वे नित्यमुक्त कहलाने लगें, परंतु ऐसा मानना प्रत्यक्ष विरुद्ध है। अत: केवलीके सिवाय अन्य संसारी जीवोंके शुभ अशुभ परिणमन माना जाता है।।४६।। आगे पहले कहा गया अतींद्रिय ज्ञान ही सब पदार्थोंको जानता है ऐसा कहते हैं --
जं तक्कालियमिदरं, जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं ।
अत्थं विचित्तविसमं, तं णाणं खाइयं भणियं ।।४७।। जो ज्ञान सर्वांगसे वर्तमान भूत भविष्यत् कालसंबंधी पर्यायोंसे सहित, विविध तथा मूर्तिक अमूर्तिकके भेदसे विषमताको लिये हुए समस्त पदार्थोंको एक साथ जानता है उसे क्षायिक ज्ञान कहा गया है।।४७ ।।
आगे जो सबको नहीं जानता वह एकको भी नहीं जानता इस विचारको निश्चित करते हैं
१. ओदइया ज. वृ. ।