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प्रवचनसार
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आगे अतींद्रिय ज्ञान सब कुछ जानता है ऐसा कहते हैं ---
अपदेसं सपदेसं, मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं।
पलयं गदं च जाणदि, तं णाणमदिंदियं भणियं।।४१।। जो ज्ञान प्रदेशरहित कालाणु अथवा परमाणुको, प्रदेशसहित पंचास्तिकायोंको, मूर्त अर्थात् पुद्गलको अमूर्त अर्थात् मूर्तिरहित शुद्ध जीवादि द्रव्योंको अनुत्पन्न और विनष्ट पर्यायोंको जानता है वह अतींद्रिय ज्ञान कहा गया है।।४१।। आगे अतींद्रिय ज्ञानमें पदार्थाकार परिणमन रूप क्रिया नहीं होती ऐसा कहते हैं --
परिणमदि णेयमढें, णादा जदि णेव खाइगं तस्स।
णाणंति तं जिणिंदा, खवयंतं कम्ममेवुत्ता।।४२।। यदि ज्ञाता आत्मा ज्ञेय पदार्थके प्रति संकल्प-विकल्परूप परिणमन करता है तो उसके क्षायिक ज्ञान नहीं है, इसके विपरीत जिनेंद्र भगवानने उस आत्माको कर्मका अनुभव करनेवाला अर्थात् संसारी ही कहा है।।४२।।
आगे ज्ञान बंधका कारण नहीं है, किंतु ज्ञेयमें जो राग-द्वेषरूप आत्माकी परिणति है वह बंधका प्रत्यक्ष कारण है ऐसा कहते हैं --
उदयगदा कम्मंसा, जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया।
तेसु हि मुहिदो रत्तो, दुट्ठो वा बंधमणुहवदि।।४३।।। जिनेंद्र भगवानने कहा है कि संसारी जीवके नियमपूर्वक कर्मोंके अंश प्रतिसमय उदयमें आते रहते हैं। जो जीव उन उदयागत कर्मांशोंमें मोही रागी अथवा द्वेषी होता है वह बंधका अनुभव करता है।।४३।।
आगे रागादिका अभाव होनेसे केवली भगवानकी धर्मोपदेश आदि क्रियाएँ बंधका कारण नहीं हैं ऐसा कहते हैं --
ठाणणिसेज्जविहारा, धम्मुवएसो य णियदयो तेसिं।
अरहंताणं काले, मायाचारोव्व इच्छीणं ।।४४।। जिस प्रकार स्त्रियोंके मायाचार रूप प्रवृत्ति स्वभावसे ही होती है उसी प्रकार अरहंत भगवानके अरहंत अवस्थाके कालमें स्थान-विहार करते-करते रुक जाना, निषद्या -- समवसरणमें आसीन होना, विहार -- आर्यक्षेत्रोंमें विहार करना और धर्मोपदेश देना ये कार्य स्वभावसे ही होते हैं।
चूंकि भगवानके मोहका उदय नहीं होता इसलिए उनकी समस्त क्रियाएँ इच्छाके अभावमें होती हैं और इसीलिए वे उनके बंधका कारण नहीं होतीं।।४४ ।।