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कुन्दकुन्द-भारती
आगे आत्माको ज्ञानप्रमाण और ज्ञानको सर्वव्यापक दिखलाते हैं -
आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाणमुद्दिढ़।
णेयं लोगालोगं, तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।।२३।। आत्मा ज्ञानके बराबर और ज्ञान ज्ञेयके बराबर कहा गया है। ज्ञेय लोक तथा अलोक है इसलिए ज्ञान सर्वगत है।।
'प्रत्येक द्रव्य अपने गुण और पर्यायोंके बराबर होता है ऐसा आगमका वचन होनेसे आत्मा अपने ज्ञानगुणके बराबर ही है, न उससे हीन है और न अधिक। ज्ञानगुण ज्ञेय अर्थात् जाननेयोग्य पदार्थके बराबर होता है और ज्ञेय लोक तथा अलोकके समस्त पदार्थ हैं। अर्थात् ज्ञान उन्हें जानता है इसलिए विषयकी अपेक्षा सर्वगत -- सर्वव्यापक है।।२३।। आगे आत्माको ज्ञानप्रमाण न माननेपर दो पक्ष उपस्थित कर उन्हें दूषित करते हैं --
णाणप्पमाणमादा, ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा। हीणो वा अधिगो वा, णाणादो हवदि धुवमेव ।। २४।। हीणो जदि सो आदा, तण्णाणमचेदणं ण जाणादि।
अधिगो वा णाणादो, णाणेण विणा कहं णादि।।२५।। जुगलं इस लोकमें जिसके मतमें आत्मा ज्ञानप्रमाण नहीं होता है उसके मतमें वह आत्मा निश्चय ही ज्ञानसे हीन अथवा अधिक होगा। यदि आत्मा ज्ञानसे हीन है तो वह ज्ञान चेतनके साथ समवाय न होनेसे अचेतन हो जायेगा और उस दशामें पदार्थको नहीं जान सकेगा। इसके विरुद्ध यदि आत्मा ज्ञानसे अधिक है तो वह ज्ञानातिरिक्त आत्मा ज्ञानके विना पदार्थको किस प्रकार जान सकेगा? जब कि ज्ञान ही जाननेका साधन है।।२४-२५ ।। आगे ज्ञानकी भाँति आत्मा भी सर्वव्यापक है ऐसा सिद्ध करते हैं --
सव्वगदो जिणवसहो, सव्वेवि य तग्गया जगदि अट्ठा।
णाणमयादो य जिणो, विसयादो तस्स ते भणिदा।।२६।। ज्ञानमय होनेसे जिनश्रेष्ठ सर्वज्ञ भगवान सर्वगत अर्थात् सर्वव्यापक हैं और उन भगवानके विषय होनेसे उससे तन्मय रहनेवाला सर्वज्ञ भी सर्वव्यापक है यह सिद्ध हुआ।।२६।। आगे आत्मा और ज्ञानमें एकता तथा अन्यताका विचार करते हैं --
णाणं अप्पत्ति मदं, वट्टदिणाणं विणा ण अप्पाणं।
तम्हा णाणं अप्पा, अप्पा णाणं व अण्णं वा।।२७।। १. वट्टइ ज. वृ. ।