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कुन्दकुन्द - भारती
परजीव तुम्हारी आयुका हरण नहीं कर सकते, तब फिर उनके द्वारा तुम्हारा मरण किस तरह किया जा सकता है? ।।२४८-२४९ ।।
आगे मरणसे विपरीत जीवित रहनेका जो अध्यवसाय है वह भी अज्ञान है ऐसा कहते हैं - जो मण्णदि जीवेमि य, जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं ।
सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विपरीदो । । २५० ।।
जो ऐसा मानता है कि मैं पर जीवोंको जीवित करता हूँ और पर जीवोंके द्वारा मैं जीवित होता हूँ
वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे जो विपरीत है वह ज्ञानी है । । २५० ।।
आगे उक्त विचार अज्ञान क्यों है? इसका उत्तर कहते हैं
आऊदयेण जीवदि, जीवो एवं भांति सव्वण्हू ।
आउंच ण देसि तुमं, कहं तए जीवियं कयं तेसिं । । २५१ । । आऊदयेण जीवदि, जीवो एवं भांति सव्वण्हू ।
आउंच ण दिति तुहं, कहं णु ते जीवियं कयं तेहिं । । २५२ । । जीव आयु के उदयसे जीवित रहता है ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं। तुम किसीको आयु नहीं देते फिर तुमने उसका जीवन कैसे किया? आयुके उदयसे जीव जीवित रहता है ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं । तुम्हें कोई आयु नहीं देता फिर उनके द्वारा तुम्हारा जीवन कैसे किया गया ? ।। २५१-२५२ ।।
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आगे किसीको दुःखी -सुखी करनेका जो विचार है उसकी भी यही गति है यह कहते हैं। दुम, दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेति ।
सो मूढो अण्णाणी, णाणी सत्तो दु विवरीदो । । २५३।।
जो ऐसा मानता है कि मैं अपने द्वारा दूसरे जीवोंको दुःखी सुखी करता हूँ, वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इससे जो विपरीत है वह ज्ञानी है ।। २५३ ।।
आगे उक्त विचार अज्ञान क्यों है? इसका उत्तर देते हैं:
कम्मोदएण जीवा, दुक्खिद सुहिदा हवंति जदि सव्वे ।
कम्मं च ण देसि तुमं, दुक्खदसुहिदा कहं कया ते ।। २५४ ।। कम्मोदएण जीवा, दुक्खिद सुहिदा हवंति जदि सव्वे । कम्मं च ण दिति तुहं, कदोसि कहं दुक्खिदो तेहिं । । २५५ । ।
१. यह गाथा ज. वृ. में नहीं है । २. यह गाथा भी ज. वृ. में नहीं है। ३. 'कम्मणिमित्तं सव्वे दुक्खिदसुहिवा हवंति जदि सत्ता' ज. वृ.