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समयसार
उवघायं कुव्वंतस्स, तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं। णिच्छयदो चिंतिज्जह, किंपच्चयगो ण रयबंधो।।२४४।।
जो सो दुणेहभावो, तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं, ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं।।२४५।। एवं सम्मादिट्ठी, वतो बहुविहेसु जोगेसु।
अकरंतो उवओगे, रागाइ ण लिप्पइ रयेण ।।२४६।। जिस प्रकार फिर वही पुरुष समस्त चिकनाईके दूर किये जानेपर बहुत धूलिवाले स्थानमें शस्त्रोंद्वारा व्यायाम करता है तथा ताल तमाल केला बाँस अशोक आदि वृक्षोंको छेदता है भेदता है, सचित्त-अचित्त पदार्थोंका उपघात करता है। यहाँ नाना प्रकारके करणोंसे उपघात करनेवाले उस पुरुषके निश्चयसे विचारो कि रजका बंध नहीं हो रहा है सो किंनिमित्तक है? उस मनुष्यमें जो चिकनाई थी उसीसे रजका बंध होता था, शरीरकी अन्य चेष्टाओंसे नहीं। यह निश्चयसे जानना चाहिए। अब चूंकि उस चिकनाईका अभाव हो गया है अत: रजका बंधभी दूर हो गया है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव जो कि यद्यपि बहुत प्रकारके योगोंमें -- मन वचन कायके व्यापारोंमें प्रवर्तमान है तथापि उपयोगमें रागादि भाव नहीं करता है इसलिए कर्मरूपी रजसे लिप्त नहीं होता है।।२४२-२४६।। आगे अज्ञानी और ज्ञानी जीवकी विचारधारा प्रकट करते हैं --
जो मण्णदि हिंसामि य, हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं।
सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीदो।।२४७।। जो पुरुष ऐसा मानता है कि मैं पर जीवको मारता हूँ और पर जीवोंके द्वारा मैं मारा जाता हूँ वह मूढ़ है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है वह ज्ञानी है।।२४७।। आगे उक्त विचार अज्ञान क्यों है? इसका उत्तर देते हैं --
आउक्खयेण मरणं, जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। आउंण हरेसि तुमं, कह ते मरणं कयं तेसिं।।२४८।। १ आउक्खयेण मरणं, जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
आउंन हरंति तुहं, कह ते मरणं कयं तेहिं ।।२४९।। जीवोंका मरण आयुके क्षयसे होता है ऐसा जिनेंद्रदेवने कहा है, तुम किसी जीवकी आयुका हरण नहीं करते हो, फिर तुमने मरण कैसे किया? आयुके क्षयसे जीवोंका मरण होता है ऐसा जिनेंद्रदेवने कहा है।
१. यह गाथा ज. वृ. में नहीं है।