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________________ कुन्दकुन्द-भारती हे भव्य! तू निरंतर इस ज्ञानमें रत हो, इसीमें निरंतर संतुष्ट रह, इसीसे तृप्त हो, क्योंकि ऐसा करनेसे ही तुझे उत्तम सुख होगा।।२०६ ।। आगे ज्ञानी परद्रव्यको क्यों नहीं ग्रहण करता? इसका उत्तर कहते हैं -- को णाम भणिज्ज बुहो, परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं । अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो।।२०७।। नियमसे आत्माको ही अपना परिग्रह माननेवाला कौन विद्वान् ऐसा कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है? ।।२०७।। आगे युक्ति द्वारा इसका समर्थन करते हैं -- मज्झं परिग्गहो जइ, तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज। णादेव अहं जम्हा, तम्हा ण परिग्गहो मज्झ।।२०८।। यदि परद्रव्य मेरा परिग्रह हो तो मैं अजीवपनेको प्राप्त हो जाऊँ, पर चूँकि मैं ज्ञाता हूँ अतः परद्रव्य मेरा परिग्रह नहीं है।।२०८।। आगे शरीरादि परद्रव्य मेरा परिग्रह किसी भी प्रकार नहीं हो सकता यह कहते हैं -- छिज्जदु वा भिज्जदु वा, णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं। जम्हा तम्हा गच्छदु, लहवि हु ण परिग्गहो मज्झ।।२०९।। ज्ञानी जीव ऐसा विचार करता है कि शरीरादि परद्रव्य छिद जावे, भिद जावे, कोई इसे ले जावे, अथवा विनाशको प्राप्त हो जावे अथवा जिस तिस तरह चली जावे तो भी मेरा परिग्रह नहीं है।।२०९।। आगे इस अपरिग्रह भावको दृढ़ करनेके लिए पृथक् पृथक् वर्णन करते हैं -- अपरिग्गहो अणिच्छो, भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्म। अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होई।।२१०।। ज्ञानी परिग्रह रहित है इसलिए इच्छासे रहित कहा गया है। वह चूँकि इच्छारहित है अतः धर्मकी इच्छा नहीं करता। इसीलिए उसके धर्मका परिग्रह नहीं है, वह केवल धर्मका ज्ञायक है।।२१० ।। अपरिग्गहो अणिच्छो, भणिदो णाणी य णिच्छदि अधम्म। अपरिग्गहो अधम्मस्स, जाणगो तेण सो होई।।२११ ।। ज्ञानी परिग्रहहीन तथा इच्छारहित कहा गया है इसलिए वह अधर्मकी इच्छा नहीं करता। उसके अधर्मका परिग्रह नहीं है, वह तो सिर्फ अधर्मका ज्ञायक है।।२११ ।। १. मममिदं ज. वृ.। २. २११ वी गाथाके आगे ज. वृ. में निम्नांकित गाथा अधिक है -- धम्मच्छि अधम्मच्छी आयासं सुत्तमंगपुव्वेसु। संगं च तहा णेयं देवमणुअत्तिरिय णेरइयं ।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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