SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अप्पाणमयाणंतो, अणप्पयं चावि सो अयाणंतो । कह होदि सम्मदिट्ठी, जीवाजीवे अयाणंतो । । २०२ । । जुम्मं निश्चयसे जिस जीवके रागादिका परमाणुमात्र भी -- लेशमात्र भी विद्यमान है वह सर्वागमका धारी होकर भी आत्माको नहीं जानता है। और जो आत्माको नहीं जानता है वह आत्मासे भिन्न परपदार्थको भी नहीं जानता है। इसप्रकार जो जीव अजीव दोनोंको नहीं जानता है वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है? ।।२०१ - २०२ ।। आगे वह पद क्या है? इसका उत्तर देते हैं- आदम्हि दव्वभावे, 'अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं । थिरमेगमिमं भावं, उवलब्भतं सहावेण । । २०३ ।। आत्मामें पर निमित्तसे हुए अपदरूप द्रव्यभावरूप सभी भावोंको छोड़कर निश्चित स्थिर एक तथा स्वभाव द्वारा उपलभ्यमान इस चैतन्यमात्र भावको तू ग्रहण कर । । २०३ ।। आगे कहते हैं कि ज्ञान सामान्य रूपसे एक प्रकारका ही है। उसमें जो भेद हैं वे क्षयोपशम निमित्तसे हैं। -- आभिणिसुदोहिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं । सो सो परमट्ठो, जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि । । २०४।। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये जो ज्ञानके भेद हैं वे वास्तवमें एकही पद हैं-- एक ही सामान्य ज्ञानस्वरूप हैं। और यही परमार्थ है जिसे पाकर जीव निर्वाणको प्राप्त होता है ।।२०४ ।। आगे इसी अर्थका उपदेश करते हैं -- १. अथिरे ज. वृ. । गुणविहीणा, एयं तु पयं बहूवि ण लहंति । तं गिण्हणियदमेदं, जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं । । २०५ ।। यदि तू कर्मसे सर्वथा छुटकारा चाहता है तो इस निश्चित ज्ञानको ग्रहण कर, क्योंकि ज्ञान रहित बहुत पुरुष इस पदको नहीं पाते हैं । । २०५ ।। आगे फिर इसी बात को पुष्ट करते हैं. ८७ एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो, होहहि तुह उत्तमं सोक्खं ।।२०६।। २. तव ज. वृ. । ३. सुपदमेदं ज. वृ.।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy