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________________ ७६ कुन्दकुन्द-भारती रत्तो बंधदि कम्मं, मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो, तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।।१५० ।। रागी जीव कर्मको बाँधता है और वैराग्यको प्राप्त हुआ कर्मसे छूटता है यह जिनेंद्र भगवानका उपदेश है, इसलिए कर्मों राग मत करो।।१५० ।। आगे ज्ञान ही मोक्षका हेतु है यह सिद्ध करते हैं -- परमट्ठो खलु समओ, सुद्धो जो केवली मुणी णाणी। तम्हि ठिदा सहावे, मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।।१५१।। निश्चयसे परमार्थरूप जीवका स्वरूप यह है कि जो शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है ये जिसके नाम हैं उस स्वभावमें स्थित हुए मुनि निर्वाणको प्राप्त होते हैं। भावार्थ -- मोक्षका उपादान कारण आत्मा है और आत्मा परमार्थसे ज्ञानस्वभाववाला है, इसलिए ज्ञान ही मोक्षका हेतु है।।१५१ ।। आगे परमार्थमें स्थित नहीं रहनेवाले पुरुषोंका तपश्चरणादिक बालतप तथा बालव्रत है ऐसा कहते हैं -- परमम्हि दु अद्विदो, जो कुणदि तवं वदं च धारेई। तं सव्वं बालतवं, बालवदं विंति सव्वण्हू।।१५२।। जो मुनि ज्ञानस्वरूप आत्मामें स्थित न होकर तप करते हैं और व्रत धारण करते हैं उस सब तप और व्रतको सर्वज्ञ देव बालतप और बालव्रत कहते हैं।।१५२।। आगे ज्ञान मोक्षका और अज्ञान बंधका कारण है यह नियम करते हैं -- वदणियमाणि धरंता, सीलाणि तहा तवं च कव्वंता। परमट्टबाहिरा जे २, णिव्वाणं ते ण विंदंति।।१५३।। जो मनुष्य परमार्थसे बाह्य हैं वे व्रत और नियमोंको धारण करते हुए तथा शील और तपको करते हुए भी मोक्षको नहीं पाते हैं।।१५३।। । आगे फिर भी पुण्यकर्मका पक्षपात करनेवालोंको समझानेके लिए कहते हैं -- परमट्ठबाहिरा जे, ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति। संसारगमणहेर्दू, वि मोक्खहेउं अजाणंता।।१५४।। जो मनुष्य परमार्थसे बाह्य हैं अर्थात् परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्माके अनुभवसे दूर हैं वे १. संपण्णो । २. जेण तेण ते होंति अण्णाणी ज. वृ. ।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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