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________________ समयसार पुण्यपापाधिकारः अपने शुभाशुभ कर्मके स्वभावका वर्णन करते हैं -- कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं। किह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि।।१४५।। अशुभ कर्मको कुशील और शुभ कर्मको सुशील जानो। परंतु जो जीवको संसारमें प्रवेश कराता है वह सुशील कैसे हो सकता है? ।।१४५।। आगे दोनों ही कर्म सामान्यरूपसे बंधके कारण हैं यह सिद्ध करते हैं -- सौवण्णियम्हि णियलं, बंधदि कालायसं च जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।।१४६।। जिस प्रकार लोहेकी बेड़ी पुरुषको बाँधती है और सुवर्णकी भी बाँधती है इसी प्रकार किया हुआ शुभ अथवा अशुभ कर्म जीवको बाँधता ही है।।१४६।। आगे दोनों ही कर्मोंका निषेध करते हैं -- तम्हा दु कुसीले हिय, रायं मा कणह मा व संसग्गं। साधीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण।।१४७।। इसलिए हे मुनिजन हो! उन दोनों कुशीलोंसे राग मत करो अथवा संसर्ग भी मत करो, क्योंकि कुशीलके संसर्ग और रागसे स्वाधीनताका विनाश होता है।।१४७ ।। आगे इसी बातको दृष्टांत द्वारा सिद्ध करते हैं -- जह णाम कोवि पुरिसो, कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता। वज्जेदि तेण समयं, संसग्गं रायकरणं च ।।१४८।। एमेव कम्मपयडी, सील सहावं हि कुच्छिदं णाउं। वज्जति परिहरंति य, तस्संसग्गं सहावरया।।१४९।। जिस प्रकार कोई मनुष्य निंदित स्वभाववाले किसी मनुष्यको जानकर उसके साथ संगति और राग करना छोड़ देता है उसी प्रकार स्वभावमें रत रहनेवाले मनुष्य कर्मप्रकृतियोंके शीलस्वभावको निंदनीय जानकर उसके साथ राग छोड़ देते हैं और उसकी संगतिका भी परिहार कर देते हैं।।१४८-१४९ ।। आगे राग ही बंधका कारण है यह कहते हैं --
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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