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________________ सोलह कुंदकुंद-भारती ध्वनिसे उन्होंने आत्मतत्त्वका स्वरूप प्राप्त किया था। विदेह गमनका सर्वप्रथम उल्लेख करनेवाले आचार्य देवसेन (वि. सं. दसवीं शती) हैं। जैसा कि उनके दर्शनसारसे प्रकट है। जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण। ण विबोहइ तो समणा कह सुमग्गं पयाणंति।।४३।। इसमें कहा गया है कि यदि पद्मनंदिनाथ सीमंधर स्वामीद्वारा प्राप्त दिव्यज्ञानसे बोध न देते तो श्रमण-मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते? देवसेनके बाद ईसाकी बारहवीं शताब्दीके विद्वान् जयसेनाचार्यने भी पंचास्तिकायकी टीकाके आरंभमें निम्नलिखित अवतरण पुष्पिकामें कुंदकुंद स्वामीके विदेहगमनकी चर्चा की है -- 'अथ श्रीकुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यैः प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञश्रीमन्दरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवाणीश्रवणावधारितपदार्थाच्छुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थं गृहीत्वा पुनरप्यागतैः श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पद्मनन्दाद्यपराभिधयैरन्तस्तत्त्वबहिस्तत्त्वगौणमुख्यप्रतिपत्त्यर्थं अथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थं विरचिते पञ्चास्तिकायप्राभृतशास्त्रे यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वकं तात्पर्यव्याख्यानं कथ्यते।' जो कुमारनंदि सिद्धांतदेवके शिष्य थे, प्रसिद्ध कथाके अनुसार पूर्व विदेह क्षेत्र जाकर वीतराग सर्वज्ञ श्रीमंदरस्वामी तीर्थंकर परमदेवके दर्शन कर तथा उनके मुखकमलसे विनिर्गत दिव्यध्वनिके श्रवणसे अवधारित पदार्थोंसे शुद्ध आत्मतत्त्व आदि सारभूत अर्थको ग्रहण कर जो पुनः वापिस आये थे तथा पद्मनंदि आदि जिनके दूसरे नाम थे ऐसे कुंदकुंदाचार्य देवके द्वारा अंतस्तत्त्वकी मुख्य रूपसे और बहिस्तत्त्वकी गौणरूपसे प्रतिपत्ति करानेके लिए अथवा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप रुचिवाले शिष्योंको समझानेके लिए पंचास्तिकाय प्राभृत शास्त्र रचा गया। षट्प्राभृतके संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरिने अपनी टीकाके अंतमें भी कुंदकुंद स्वामीके विदेह गमनका उल्लेख किया है -- 'श्रीमत्पद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपञ्चकविराजितेन चतुरङ्गुलाकाशगमनर्द्धिना पूर्वविदेहपुण्डरीकिणीनगरवन्दितश्रीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तत्प्राप्तश्रुतज्ञानसम्बोधितभारवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृत ग्रन्थे--' 'पद्मनंदी, कुंदकुंदाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पाँच नामोंसे जो युक्त थे, चार अंगुल ऊपर आकाश गमनकी ऋद्धि जिन्हें प्राप्त थी, पूर्व विदेह क्षेत्रके पुंडरीकिणी नगरमें जाकर श्रीमंधर अपरनाम स्वयंप्रभ जिनेंद्रकी जिन्होंने वंदना की थी, उनसे प्राप्त श्रुतज्ञानके द्वारा जिन्होंने भरत क्षेत्रके भव्य जीवोंको संबोधित किया था जो जिनचंद्र सूरि भट्टारकके पट्टके आभूषण स्वरूप थे तथा कलिकालके सर्वज्ञ थे; ऐसे कुंदकुंदाचार्य द्वारा विरचित षट्प्राभृत ग्रंथमें ।' उपर्युक्त उल्लेखोंसे साक्षात् सर्वज्ञदेवकी वाणी सुननेके कारण कुंदकुंद स्वामीकी अपूर्व महिमा प्रख्यापित की गयी है। किंतु कुंदकुंद स्वामीके स्वमुखसे कहीं विदेह गमनकी चर्चा उपलब्ध नहीं होती। उन्होंने समयप्राभृतके प्रारंभमें सिद्धोंकी वंदनापूर्वक निम्न प्रतिज्ञा की है --
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
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