SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुन्दकुन्द-भारती आगे यह जीव किस विविध विधिसे निवृत्त होता है यह कहते हैं -- अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदंसण-समग्गो। तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए' खयं णेमि।।७३।। ज्ञानी जीव ऐसा विचार करता है कि मैं निश्चयसे एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममतारहित हूँ और ज्ञानदर्शनसे परिपूर्ण हूँ। उसी ज्ञान-दर्शन स्वभावमें स्थिर होता हुआ तथा उसीमें चित्त लगाता हुआ मैं इन सब क्रोधादि आस्रवोंको क्षय प्राप्त करता हूँ अर्थात् इसका नाश करता हूँ।।७३ ।। आगे भेदज्ञान और आस्रवकी निवृत्ति एक ही समय होती है यह कहते हैं -- जीवणिबद्धा एए, अधुव अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्खा दुक्खफला त्ति य, णादूण णिवत्तए तेहिं।।७४ ।। जीवके साथ बँधे हुए ये आस्रव अध्रुव हैं, अनित्य हैं, शरणरहित हैं, दुःख हैं और दुःखके फलस्वरूप हैं। ऐसा जानकर ज्ञानी जीव उनसे निवृत्ति करता है।।७४।। आगे ज्ञानी आत्माकी पहचान बतलाते हैं -- कम्मस्स य परिणाम, णोकम्मस्स य तहेव परिणाम। ण करेइ एयमादा, जो जाणदि सो हवदिणाणी।।७५।।" जो आत्मा कर्मके परिणामको और नोकर्मके परिणामको नहीं करता है, केवल जानता है, वह ज्ञानी है। मोह तथा रागद्वेष आदि अंतर्विकार कर्मके परिणाम हैं और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, नोकर्मके परिणाम हैं। ज्ञानी जीव अपने आपको इनका करनेवाला कभी नहीं मानता, वह सिर्फ उदासीन भावसे इसको जानता मात्र है। ज्ञानी जीव कर्म तथा नोकर्मके परिणामको जानता ही है, उनमें राग द्वेष आदिकी कल्पना नहीं करता है। यही उसकी पहचान है।।७५ ।। आगे पौद्गलिक कर्मको जाननेवाले जीवका पुद्गलके साथ कर्तृ कर्मभाव है कि नहीं? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं --- णवि परिणमइ ण गिण्हइ, उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाये। णाणी जाणतो वि हु, पुग्गलकम्मं अणेयविहं ।।७६।। १. किदो ज. वृ. । २. एदे ज. वृ. । ३. णिवदत्ते तेसु ज. वृ. । ४.७५ वीं गाथाके बाद ज. वृ. में निम्न गाथा अधिक मिलती है -- कत्ता आदा भणिदो ण य कत्ता केण सो उवाएण। धम्मादी परिणामे जो जाणदि सो हवदि णाणी।।
SR No.009555
Book TitleKundakunda Bharti
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year2007
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size92 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy