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समयसार ये सब अध्यवसानादिक भाव जीव हैं ऐसा जिनेंद्रदेवने वर्णन किया है वह व्यवहार नयका मत है।।४६।। आगे यह व्यवहार किस दृष्टांतमें प्रवृत्त हुआ यह कहते हैं --
राया हु णिग्गदो त्तिय, एसो बलसमुदयस्स आदेसो। ववहारेण दु उच्चदि, तत्थेको णिग्गदो राया।।४७।। एमेव य ववहारो, अज्झवसाणादिअण्णभावाणं।
जीवोत्ति कदो सत्ते, तत्थेको णिच्छिदो जीवो।।४८।। जैसे कोई राजा सेनासहित निकला। यहाँ सेनाके समूहको यह कहना कि 'यह राजा निकला है। व्यवहार नयसे कहा जाता है। यथार्थमें उनमें राजा तो एक ही निकला है। इसी प्रकार अध्यवसानादि भावोंको 'यह जीव है' ऐसा जो आगममें कहा गया है वह व्यवहार नयसे कहा गया है, निश्चयसे तो उनमें जीव एक ही है।।४७-४८।। तो फिर जीवका वास्तविक स्वरूप क्या है? इसका उत्तर कहते हैं --
अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं।
जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिविट्ठसंठाणं ।।४९।। जो रसरहित है, रूपरहित है, गंधरहित है, अव्यक्त है, चेतनागुणसे सहित है, शब्दरहित है, जिसका किसी चिह्न अथवा इंद्रियद्वारा ग्रहण नहीं होता और जिसका आकार कहनेमें नहीं आता उसे जीव जीव जानो।।४९।। आगे जीवके रसादि नहीं हैं यह कहते हैं --
जीवस्स णत्थि वण्णो, णवि गंधो णवि रसो णवि य फासो। णवि रूवं ण सरीरं, ण वि संठाणं ण संहणणं ।।५०।। जीवस्स णत्थि रागो, णवि दोसो णेव विज्जदे मोहो। णो पच्चया ण कम्मं, णोकम्मं चावि से णत्थि।।५१।। जीवस्स णत्थि वग्गो, ण वग्गणा णेव फड्ढया केई। णो अज्झप्पट्ठाणा, णेव य अणुभायठाणाणि ।।५२।। जीवस्स णत्थि केई, जोयट्ठाणा य बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा, ण मग्गणट्ठाणया केई।।५३।। णो ठिदिबंधट्ठाणा, जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा, णो संजमलद्धिठाणा वा।। ५४।।