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कुन्दकुन्द-भारती अरहंत सिद्ध साधुओंमें भक्ति होना, शुभरागरूप धर्ममें प्रवृत्ति होना तथा गुरुओंके अनुकूल चलना यह सब प्रशस्त राग है, ऐसा पूर्व महर्षि कहते हैं।।१३६ ।।
अनुकंपाका लक्षण तिसिदं बुभुक्खिदं वा, दुहिदं दट्ठण जो दु दुहिदमणो।
पडिवज्जदि तं किवया, तस्सेसा होदि अणुकंपा।।१३७।। जो भूखे-प्यासे अथवा अन्य प्रकारसे दुःखी प्राणियोंको देखकर स्वयं दुःखित होता हुआ दयापूर्वक उसे अपनाता है -- उसका दुःख दूर करनेका प्रयत्न करता है उसके अनुकंपा होती है।।१३७ ।।
कोधो व जदा माणो, माया लोभो व चित्तमासेज्ज।
जीवस्स कुणदि खोहं, कलुसो त्ति य तं बुधा वेंति।। क्रोध, मान, माया और लोभ चित्तको प्राप्त कर आत्मामें जो क्षोभ उत्पन्न करते हैं, पंडित जन उसे कालुष्य कहते हैं।।१३८।।
पापास्रवके कारण चरिया पमादबहुला, कालुस्सं लोलदा य विसयेसु।
परपरितावपवादो, पावस्स य आसवं कुणदि।।१३९ ।। प्रमादसे भरी हुई प्रवृत्ति, कलुषता, विषयोंकी लोलुपता, दूसरोंको संताप देना और उसका अपवाद करना यह सब पापास्रवके कारण हैं।।१३९ ।।
सण्णाओ य तिलेस्सा, इंदियवसदा य अत्तरुद्दाणि।
णाणं च दुप्पउत्तं, मोहो पावप्पदा होति।।१४०।। आहार आदि चार संज्ञाएँ, कृष्ण आदि तीन लेश्याएँ, पंचेंद्रियोंकी पराधीनता, आर्त-रौद्र ध्यान, असत्कार्यमें प्रयुक्त ज्ञान और मोह ये सब पापास्रव करानेवाले हैं।।१४० ।।
पापास्रवको रोकनेवाले कारण इंदियकसायसण्णा, णिग्गहिदा जेहिं सुटुमग्गम्मि।
जावत्तावत्तेहिं, पिहियं पावासवं छिदं ।।१४१।। जो इंद्रिय, कषाय और संज्ञाओंको जितने अंशोंमें अथवा जितने समय तक समीचीन मार्गमें नियंत्रित कर लेते हैं उनके उतने ही अंशोंमें अथवा उतने ही समय तक पापासवका छिद्र बंद रहता है -- पापास्रवका संवर रहता है।।१४१ ।।
१. 'अट्टरुद्दाणि' इत्यपि पाठः।