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कहते हैं । । १२५ ।।
कुन्दकुन्द - भारती
शरीररूप पुद्गल और जीवमें पृथक्त्वपनका वर्णन संठाणा संघादा, वण्णरसप्फासगंधसद्दा य । पोग्गलदव्वप्पभवा, होंति गुणा पज्जया य बहू । । १२६ । । अरसमरूवमगंधमव्वत्तं चेदणागुणमसदं ।
जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं । । १२७ ।।
समचतुरस्र आदि संस्थान, औदारिकादि शरीरसंबंधी संघात, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और शब्द आदि जो अनेक गुण तथा पर्याय दिखती हैं वे सब पुद्गल द्रव्यसे समुत्पन्न हैं । परंतु जीव रसरहित है, रूपरहित है, गंधरहित है, अव्यक्त है, चेतनागुणसे युक्त है, शब्दरहित है, बाह्य इंद्रियोंके द्वारा अग्राह्य है और संस्थान -- आकाररहित है, ऐसा जानो । । १२६-१२७ ।।
जीवके संसारभ्रमणका कारण
जो खलु संसारत्थो, जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं, कम्मादो होंति गदिसु गदी । । १२८ । । गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंद्रियाणि जायंते ।
तेहिंदु विसयग्गहणं, तत्तो रागो व दोसो वा । । १२९ ।। जायदि जीवस्सेवं, भावो संसारचक्कवालम्मि ।
इदि जिणवरेहिं भणिदो, अणादिणिधणो सणिधणो वा । । १३० ।।
जो यह संसारी जीव है उसके राग-द्वेष आदि अशुद्ध भाव होते हैं, उनसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंका बंध होता है, कर्मोंसे एक गतिसे दूसरी गति प्राप्त होती है, गतिको प्राप्त हुए जीवके औदारिकादि शरीर होता है, शरीरसे इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं, इंद्रियोंसे विषयग्रहण होता है और उससे राग तथा द्वेष उत्पन्न होते हैं। संसाररूपी चक्रमें भ्रमण करनेवाले जीवके ऐसे अशुद्ध भाव अभव्यकी अपेक्षा अनादि अनंत और भव्यकी अपेक्षा अनादि-सांत होते हैं, ऐसा श्री जिनेंद्रदेवने कहा है । । १२८-१३० ।।
शुभ-अशुभ भावोंका वर्णन
मोहो रागो दोसो, चित्तपसादो य जस्स भावम्मि ।
विज्जदि तस सुहोवा, असुहो वा होदि परिणामो । । १३१ । ।
जिस जीवके हृदयमें मोह, राग, द्वेष और चित्तकी प्रसन्नता रहती है उसके शुभ अथवा अशुभ परिणाम अवश्य होते हैं अर्थात् जिसके हृदयमें प्रशस्त राग और चित्तकी प्रसन्नता होगी उसके शुभ परिणाम